रविवार 25 सितंबर 2022 को लोक राज संगठन ने “कानून का शासन क्या सभी के लिये न्याय सुनिश्चित करता है?” विषय पर राजनीतिक फोरम आयोजित किया । यह चर्चा नयी दिल्ली के इंडियन सोशल इंस्टिट्यूट में रखी गई। इसमें राजनीतिक पार्टियों व जन संगठनों के प्रतिनिधियों, अनेक अधिवक्ताओं और सामाजिक कार्यकत्र्ताओं ने हिस्सा लिया।

राजनीतिक फोरम का संचालन श्री संतोष कुमार ने किया ।

मुख्य वक्ता बतौर लोक राज संगठन के अध्यक्ष श्री एस राघवन, मज़दूर एकता कमेटी के सचिव, श्री बिरजू नायक और सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता श्री वीरेंद्र कसाना मंच पर मौजूद थे।

सभा की शुरुआत में, श्री संतोष कुमार ने कहा कि अपने देश में अनेक उदाहरण हैं, जिनसे दिखता है कि खास कर अपराध को अंजाम देने वालों में, अगर, राजनीतिक पार्टियों के नेता या स्वयं राज्य की संस्थाओं का हाथ होता है, वहां लोगों को न्याय नहीं मिलता है। लोग चाहते हैं, कि सभी को न्याय मिले। इस विचार-विमर्श का मकसद है, यह समझना है कि क़ानून का शासन क्या है और कानून के शासन में सभी लोगों को न्याय क्यों नहीं मिलता है।

लोक राज संगठन के अध्यक्ष, श्री राघवन ने “कानून का शासन” (रूल ऑफ़ लॉ ) की अवधारणा के उद्गम की ओर ध्यान दिलाया। उन्होंने बताया कि “कानून का शासन” की अवधारणा इंगलैंड में 17वीं शताब्दी में विकसित हुई, जब संप्रभुता के प्रश्न पर इंगलैंड, आयरलैंड और स्काटलैंड के राजा जेम्स प्रथम और उभरते नये वर्ग, जिसमें व्यापारी वर्ग शामिल था, के बीच टकराव हुआ था। जेम्स प्रथम ने दावा किया था कि उसके पास राज करने का दिव्य अधिकार है जबकि नये वर्ग संसद और कानूनों को प्राथमिकता देना चाहते थे और राजा को संसद के अधीन करना चाहते थे। यह संघर्ष सालों-साल चला और अंत में नये वर्गों की जीत के साथ “कानून का शासन” स्थापित हुआ। इसके तहत इंगलैंड में “संसद में विराजमान राजा” की अवधारणा आयी।

इसी अवधारणा को अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने हिन्दोस्तान में स्थापित किया। राजनीतिक तौर पर इसमें तीन तत्व हैं – शांति, व्यवस्था और सुशासन। परन्तु परिभाषा में इसका असली चरित्र छुप जाता है कि यह एक अत्यंत मनमाना शासन  है। उपनिवेशवादी काल में इसका मतलब था कि उपनिवेशवादी लूट, उपनिवेशवादी दमन और उपनिवेशवादी जुल्म – ये सब कानूनी कार्यवाइयां थीं। किसी भी कार्यवाई का कानूनी होना या गैर कानूनी होना इस बात पर निर्भर था कि वह कार्यवाई उपनिवेशवाद के आर्थिक और राजनीतिक हित में थी या उसके खि़लाफ़। एक बार उपनिवेशवाद को स्वीकार कर लिया जाये तो “कानून का शासन” के जरिये शांति बहाल करने के सिद्धांत का मतलब था कि सभी विरोध को कुचलना। समाज में “व्यवस्था” बनाये रखने का मतलब था कि सभी को समाज में मौजूदा  ऊंच-नीच को मान कर चलना चाहिये। ”सुशासन“ के सिद्धांत का मतलब था किसी भी चुनाव के बाद, उसमें कितनी ही धांधली क्यों न हुई हो, नतीजा घोषित होने के बाद सत्ता और विपक्ष को  अपनी-अपनी  जगह स्वीकार करना और हर वक्त सरकार को यह सुनिश्चित करना कि अंग्रेजों के “राज करने का दिव्य अधिकार” कायम रहे।

आजादी मिलने के बाद, हिन्दोस्तानी गणराज्य की पद्धति में इसी अवधारणा  को रूपांतरित किया गया है। अंग्रेज शासक वर्ग की सत्ता की जगह पर अब हिन्दोस्तानी शासक वर्ग की सत्ता है जिसमें इजारेदार कार्पोरेट घरानों और बडे़ सरमायदारों का बोलबाला हैं। 1947 में सत्ता के स्थानान्तरण  से कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया। उपनिवेशवादी संस्थाओं व कानूनों को कभी हटाया नहीं गया, यहां तक कि हिन्दोस्तानी संविधान का अधिकांश भाग अंग्रेजों के 1935 के गवर्मेंट आफ इंडिया एक्ट, याने कि उपनिवेशवादी संविधान से शब्दशः लिया गया है।

वर्तमान व्यवस्था में जो भी लोगों के प्रतिनिधि चुनकर संसद या विधान सभाओं में जाता है, उसकी मतदाताओं की ओर कोई जवाबदेही नहीं होती । “कानून का शासन”  लागू करने का मतलब है मौजूदा व्यवस्था की रक्षा करना और शासक वर्ग की मनमानी को चुनौती देने वालों का दमन करना। अतः “कानून का शासन” सभी के लिये न्याय सुनिश्चित नहीं करता है और न ही उसे ऐसा करने के लोए बनाया गया था।

श्री राघवन ने आगे बताया कि हिन्दोस्तान में शासन की अवधारणा को 5000 वर्षों से विकसित किया गया है और कहीं भी राजा के कानून से  ऊपर होने की अवधारणा नहीं है। अंत में उन्होंने बताया कि सभी के लिये न्याय की सुनिश्चिती तभी हो सकती है जब संप्रभुता लोगों के हाथों में हो। इसके लिये राज्य को एक नयी नींव पर स्थापित करने की जरूरत है।

अधिवक्ता वीरेंद्र कसाना ने ध्यान दिलाया कि संविधान सभा में चुने हुए लोग नहीं थे बल्कि नामांकित लोग थे जिन्होंने संविधान में आम लोगों के हितों को सुनिश्चित नहीं किया। उन्होंने इसे समझाने के लिये राष्ट्र भाषा पर हुई चर्चा का उदाहरण दिया कि कैसे हिन्दोस्तानी को राजभाषा नहीं बनाया गया जिसमें हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, गुजराती, इत्यादि अनेक भाषाओं का मिश्रण था, जो देश के लोगों की एकता मजबूत करने में सहायक होती थी। उन्होंने कहा कि, इस तंग नज़रिये की सोच से देश के लोगों की तरक्की संभव नहीं है। इसे बदलने के लिये सभी को शामिल करने की जरूरत है।

श्री बिरजू नायक ने न्यूनतम वेतन का उदाहरण लेते हुए बताया कि अधिकांश मज़दूरों को न्यूनतम वेतन नहीं दिया जाता है। इस तरह से अधिकांश पूंजीपति कानून का उल्लंघन करते आये हैं। “कानून का शासन”  में एक तरफ मज़दूरों द्वारा अपनी पंसद का यूनियन बनाने के जुर्रत करने के लिये, सैंकड़ो मज़दूर को सालों-साल जेल में बंद रखा जाता है, जैसा कि मारुति के मज़दूरों के साथ किया गया और दूसरी तरफ कानून का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन करने वालों को कभी भी कोई सज़ा नहीं होती।

उन्होंने बताया कि यह स्पष्ट है कि “कानून का शासन” पूंजीवादी व्यवस्था में मज़दूरों और किसानों के शोषण को लागू रखने के लिये किया जाता है। इससे न तो मज़दूरों को न्याय मिलता है और न ही इससे आम लोगों के न्याय मिलने की उम्मीद ही रखी जा सकती है।

इसके अलावा मंच से अपने विचार रखने वालों में थे – अधिवक्ता सर्फुद्दीन अहमद, अधिवक्ता ओ.पी. गुप्ता, अधिवक्ता असलम अहमद, इंकलाबी मज़दूर केंद्र से श्री मुन्ना प्रसाद, श्री वेंकटेश, श्री उमेश मिश्रा, जमात ए इस्लामी हिंद के श्री इनाम उर रहमान, पी.यू.सी.एल. से श्री विकास दूबे, वेल्फेयर पार्टी आफ इंडिया से श्री आरिफ, ई-रिक्शा यूनियन से श्री महेंद्र विश्वकर्मा और पुरोगामी महिला संगठन से सुश्री पूनम।

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