स्रोत: https://www।rediff।com/news/report/sc-issues-notice-to-centre-gujarat-over-bilkis-bano-case-convicts-release/20220825।htm
पुरोगामी महिला संगठन, ठाणे परिषद के सदस्यों द्वारा आयोजित चर्चा की रिपोर्ट
बिलकिस बानो मामले में कई सामूहिक बलात्कार और हत्याओं के 11 दोषियों को मिली आजादी ने हमारे देश और यहां तक कि दुनिया के करोड़ों लोगों को झकझोर कर रख दिया है। पुरोगामी महिला संगठन (PMS) की ठाणे परिषद के सदस्यों ने रविवार, 21 अगस्त, 2022 को इस ज्वलंत विषय पर चर्चा की।
खास बात यह है कि वहां इतनी ही संख्या में पुरुष मौजूद थे। यह इस धारणा के अनुरूप है जो PMS 1980 में अपनी स्थापना के बाद से मानी है, कि: महिलाओं की मुक्ति के बिना, पुरुष की कोई गरिमा नहीं हो सकती है! या जैसा कि हमारे गीतों में से एक में उचित रूप से व्यक्त किया गया है,
“शोषित पुरुष तो अपने ही भाई, लक्ष्य हमारे एक हैं!
चोट हमें तो दर्द उन्हें भी, शत्रु हमारे एक हैं!
शोषित भाइयों से अपनी मज़बूत एकता शोषण नष्ट कर देगी…”
औपचारिक चर्चा शुरू होने से पहले, एक युवा सदस्य ने व्यक्त किया जो हर किसी के दिल में है: “1947 के 75 साल बाद, अब सामूहिक बलात्कारी और कइयों के हत्यारे, जेल से अपनी आजादी और माला पहनवाने और खुद की पूजा करवाने की आजादी का जश्न मना सकते हैं! मुझ जैसी महिलाओं और युवा लड़कियों के लिए इस आजादी के क्या मायने हैं?”
शुरुआत में, संयोजक ने मामले के तथ्य रखे: गुजरात में 2002 में आयोजित तथाकथित सांप्रदायिक दंगों में, जो भागने की कोशिश कर रहे थे ऐसे बिलकिस बानो के परिवार के 14 सदस्य मारे गए। उसकी 3 साल की बेटी का सिर कुचल दिया गया। इससे पहले बूढ़ों समेत सभी महिलाओं के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया गया था। बिलकिस बानो पांच माह की गर्भवती थी। किसी तरह वह मौत का नाटक करके बच गई।
अपने परिवार के सदस्यों के अत्याचारों को देखने के लिए मजबूर होने के अलावा, बिलकिस बानो के साथ 22 बार बलात्कार किया गया था। वह अपने पति और समर्थकों के सहयोग से लंबे समय तक अपनी लड़ाई में लगी रही जब तक कि दोषियों को उम्रकैद की सजा नहीं दी गई। उस समय उन्हें और उनके परिवार को अपनी जान का खतरा इसलिए था क्योंकि उनमें लड़ने की हिम्मत थी। उन्हें 20 बार अपना निवास स्थान बदलना पड़ा और अब वे फिर से खतरा महसूस कर रहे हैं जबकि अपराधी अपनी स्वतंत्रता का जश्न मना रहे हैं और उन्हें नायकों के रूप में दिखाया जा रहा है।
हमारे देश की महिलाओं के लिए इसका क्या मतलब है? लोगों के लिए इसका क्या अर्थ है? हम क्या करें?
संयोजक ने बारी-बारी से अपने विचार व्यक्त करने को सभी से कहा तो सदस्यों ने उत्साह से वैसा ही किया। हम उभरे मुख्य बिंदुओं का सारांश देंगे।
लोग सांप्रदायिक नहीं हैं; सांप्रदायिक “दंगे” शासक वर्ग द्वारा आयोजित किए जाते हैं
गुजरात के “दंगे” स्वतःस्फूर्त नहीं थे, बल्कि 1984 के “दंगों” की तरह सर्वोच्च राज्य अधिकारियों द्वारा प्रोत्साहित तथा आयोजित किए गए नरसंहार थे; 1984 में कांग्रेस पार्टी द्वारा सिखों को निशाना बनाया गया था।
दोनों ही मामलों में, और इसके अलावा कई अन्य मामलों में, देश के सर्वोच्च अधिकारियों सहित शासन ने ही नरसंहार के लिए स्थितियां पैदा कीं। कई नेताओं ने वास्तव में भाग लिया, जबकि अन्य ने पर्दे के पीछे से नरसंहार की कमान संभाली, संगठित किया और उसे सुगम बनाया।
2002 में गुजरात में “दंगों” के साथ-साथ 1992 में मुंबई में “दंगों” पर पीपल्स कमीशन की रिपोर्ट ने उजागर किया कि वे कैसे संगठित थे और कैसे अधिकारी और सत्ता में बैठे लोग उनमें शामिल थे।
चूंकि ये “दंगे” स्वयं शासकों द्वारा आयोजित किए जाते हैं, इसलिए इसके आयोजकों और अत्याचारों के अपराधियों को दंडित नहीं किया जाता है।
दूसरी ओर, ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जब लोग दूसरे समुदाय के सदस्यों को बचाने के लिए आते हैं, यहाँ तक कि अपनी खुद की जान को भी बहुत जोखिम में डालकर।
फूट डालो और राज करो – शासक वर्ग की नीति।
जैसा अंग्रेजों के राज के समय में था, आज भी बड़े कॉरपोरेट्स के नेतृत्व में शासक वर्ग की संख्या बहुत कम है। वह हमें विभाजित करने के लिए हर बहाने का इस्तेमाल किए बिना शासन नहीं कर सकता। 1857 में स्वतंत्रता के महान युद्ध से अंग्रेजों के राज को बड़ा खतरा था; अपने राज को शाश्वत रखने के लिए उन्होनें इस नीति का व्यवस्थित रूप से उपयोग करना शुरू कर दिया। हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ने इस पद्धति को और विकसित किया है और इसे लागू करने के लिए अपनी पार्टियों का वह उपयोग करता है। यह 1984 में हुआ था जब कांग्रेस सिखों को सबक सिखाना चाहती थी। पूरे पंजाब में, किसान अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे थे और शासक वर्ग को अपनी “व्यवस्था” को बरक़रार रखने की (या दूसरे शब्दों में, उन्हें दबाने) की आवश्यकता थी।
1991 में जब LPG की नई आर्थिक नीति शुरू की गई तो मजदूर आंदोलन के साथ-साथ महिला आंदोलन भी इसके खिलाफ लड़ रहे थे। भाजपा ने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुद्दा उठाया, और सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी ने नफरत फैलानेवाली, उत्तेजक और पूरे भारत में आग लगानेवाली रथ यात्रा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करते हुए उसे अपने आशीर्वाद दिये थे। उसने बाबरी मस्जिद विध्वंस और उसके बाद हुए नरसंहार को फिर से अपना आशीर्वाद दिया और उन्हें रोकने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की।
2002 का मामला भी ऐसा ही था, जब जनता पर और कहर बरपाने वाले सुधारों की नई लहर शुरू हुई थी।
आज भी जब मेहनतकशों पर अंतहीन आर्थिक और अन्य हमले किए जा रहे हैं, लोगों को बांटने और उन्हें भटकाने के लिए सांप्रदायिकता का घड़ा हमेशा उबलता रहता है।
अलग-अलग समय पर अलग-अलग समुदायों को निशाना बनाया गया है। लक्षित समुदाय के खिलाफ लोगों के दिमाग में जहर घोलने में मीडिया बड़ी भूमिका निभाता है। सबसे बड़े मीडिया घरानों का स्वामित्व पूंजीवादी इजारेदारों के पास है। सरकारी मीडिया अपनी भूमिका निभाता है; सरकार स्वयं उन लोगों से बनी है जिनसे अपनी नीतियों को लागू करवाने के लिए बड़े इजारेदारों द्वारा वित्त पोषित किया जाता है।
हमारे देश में अलग-अलग समय पर दक्षिण भारतीयों, उत्तर भारतीयों, बंगालियों और ईसाइयों को निशाना बनाया गया है। तथाकथित निचली जातियों के खिलाफ लक्षित हिंसा के कई उदाहरण हैं, और उच्च जाति के अपराधियों (जिसे अब संस्कारी कहा जाता है) को कभी दंडित नहीं किया जाता है। इन सभी मामलों में लोगों की हत्या कर दी जाती है, साथ ही महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार भी किया जाता है।
लोगों को अपनी जरूरतों के लिए संघर्ष पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय एक-दूसरे से नफरत करना सिखाया जाता है। शासक वर्ग चाहता है कि हम एक-दूसरे पर हमला करें, या कम से कम दूसरी तरफ देखें जब विशिष्ट समुदायों पर हमला किया जाता है। मजदूर वर्ग के बड़े तबके और लोगों को आतंकित रखना शासक वर्ग के हित में है ताकि ये लोग उसके खिलाफ लड़ाई में शामिल न हों।
यह “बहुसंख्यकवादी” राज्य नहीं है, बल्कि शासक वर्ग का राज्य है!
हमारे देश के हर हिस्से में हमारे देश के अधिकांश लोग मजदूर, किसान और अन्य मेहनतकश हैं, जो विभिन्न लिंगों, धर्मों, जातियों, क्षेत्रों आदि से हैं। हम सभी अपनी रोजी-रोटी पर, अपने अधिकारों पर बढ़ते हमले देख रहे हैं।
दूसरी ओर, शासक वर्ग लोगों को बहुसंख्यक धर्म और अल्पसंख्यक धर्मों के आधार पर विभाजित करता है क्योंकि इस से लोगों को विभाजित करने और अल्पसंख्यक इजारेदार पूंजीपतियों के शासन को कायम रखने में मदद मिलती है।
यह मजदूरों, किसानों और मेहनतकशों का “बहुसंख्यकवादी” राज्य नहीं है।
किस राज्य की संस्था ने कभी भी हमारे लिए काम किया है?
दशकों से हम देख सकते हैं कि सत्ता में कोई भी पार्टी क्यों न हो, हमारा जीवन हर तरह से कठिन होता जा रहा है, और साथ ही सबसे अमीर पूंजीवादी परिवार और अमीर होते जा रहे हैं और अब वे दुनिया में अमीरों में गिने जाते हैं। संसद ऐसे कानून पारित करती है जो खुले तौर पर हमारे खिलाफ हैं और कॉरपोरेट्स के फायदे में हैं; इनमें नवीनतम कृषि कानून और श्रम संहिता शामिल हैं।
हमारी आवाजें न तो मंत्रियों द्वारा सुनी जाती हैं और न ही नौकरशाही द्वारा। दूसरी ओर, पूंजीपतियों को सिर्फ सरकारों को आदेश देना होता है, और वे कहते हैं “जी, साहब”।
लोग पुलिस के पास जाने से बचने की कोशिश करते हैं; कुछ सत्ता रखने वालों के खिलाफ FIR दर्ज करवाना भी मुश्किल है और कई बार असंभव भी। कई महिलाएं वास्तव में यह सोचती हैं कि थाना उनके लिए सबसे खतरनाक जगहों में से एक है।
1984 और 2002 दोनों में हजारों लोगों की हत्या और बलात्कार किया गया, लेकिन कुछ को ही सजा मिली। न्याय प्राप्त करना एक लंबी, महंगी और लंबी प्रक्रिया है, जिसमें व्यवस्था पीड़ितों के खिलाफ है, यहां तक कि FIR दर्ज करने में भी कठिनाई होती है।
पुलिस अधिकारियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं सहित जिन लोगों में बोलने की हिम्मत है, उन्हें जेलों में बंद कर दिया जाता है। तहकीकात करनेवाले पत्रकार खतरे में रहते हैं और मानसिक संकट से जूझ रहे हैं।
जेलें ऐसे लोगों से भरी हैं जिनके मामले विचाराधीन हैं; उनमें से कई हैं जो अंततः निर्दोष साबित होतें हैं, जबकि अपराधी स्वतंत्र रूप से घूमते हैं और उनमें से कई विभिन्न स्तरों पर सत्ता में हैं।
जनसंहार के समय सत्ताधारी दल से लेकर पुलिस ( जो संबंधित गृह मंत्री की कमान में होते हैं) तक, और न्यायिक व्यवस्था तक, सभी राज्य संस्थाएं पीड़ितों और मेहनतकश लोगों के खिलाफ कार्रवाई करती हैं।
नहीं, राज्य संस्थाएं निश्चित रूप से अधिकांश लोगों के लिए नहीं हैं, चाहे वे हिंदू हों या नहीं। वे उनके खिलाफ हैं! यह बहुसंख्यकवादी राज्य नहीं है, बल्कि बड़े पूंजीपतियों का राज्य है।
हनें क्या करना चाहिये?
पहली बात यह है कि निश्चित रूप से हमें अन्याय के खिलाफ और अपने अधिकारों के लिए इस भावना से लड़ना होगा कि “एक पर हमला सभी पर हमला है!”
हमें जो सबक याद रखना चाहिए वह यह है कि हमें लोगों के सशक्तिकरण के लिए लड़ने की जरूरत है! साम्प्रदायिक हिंसा केवल लक्षित समुदाय पर हमला नहीं है। यह हम सभी पर हमला है, क्योंकि यह हमारी एकता पर हमला है। बलात्कार का मामला भी ऐसा ही है। यह केवल महिलाओं पर नहीं, बल्कि सभी कामकाजी लोगों पर हमला है।
साम्प्रदायिक हिंसा के मामले में, योजना बनाने और संगठित करने वाले कमांडरों को, यानि अपने कृतियों द्वारा या कृति नहीं करने के द्वारा हिंसा को आयोजित या प्रोत्साहित करनेवाले कमांडरों को कभी दंडित नहीं किया जाता है। हमारी मांग होनी चाहिए कि शीर्ष पर बैठे लोगों सहित दोषियों को सजा दी जाए।
बड़ा सवाल उठाने की जरूरत है राजनीतिक सत्ता का। हमें समझना होगा और दूसरों को समझाना होगा कि विभिन्न समस्याएं – गरीबी, बेरोजगारी, अत्याचारी काम करने की स्थिति, महिलाओं और लोगों के खिलाफ हिंसा आदि परस्पर जुड़ी हुई हैं। मूल समस्या यह है कि इस प्रणाली में लोगों के प्रति कोई जवाबदेही नहीं है – मंत्री, निर्वाचित प्रतिनिधी, पुलिस, अधिकारी, न्यायाधीश – उनमें से कोई भी लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं है। हमारे पास यह तय करने की शक्ति नहीं है कि देश को कैसे चलाया जाए।
यह दिखाने के लिए अनगिनत उदाहरण हैं कि जहाँ भी और जिस हद तक जब लोगों के पास निर्णय लेने की कुछ शक्ति होती है तो कैसे चीजें अलग होती है।
PMS के सदस्यों ने अनगिनत मोर्चों और प्रदर्शनों में भाग लिया है, जब उन्होंने पूरी तरह से सुरक्षित महसूस किया है, क्यों कि वे वहां ऐसे लोगों से घिरे हुए रहते हैं जहां लोग उनके अधिकारों के लिए लड़ते हैं।
असंख्य धार्मिक सभाओं और जुलूसों में, महिलाएं तब तक सुरक्षित रहती हैं, जब तक कि बाहर से उपद्रवी आकर उन पर हमला न कर दें; अक्सर इन उपद्रवियों को निहित स्वार्थों द्वारा संगठित किया जाता है।
यह सर्वविदित है कि जब किसान दिल्ली की सीमा पर डेरा लगा कर बैठे थे, तो उन दिनों और रातों के सभी घंटों में महिलाओं के लिए भारत में वह सबसे सुरक्षित स्थान था। वहां कोई भूखा नहीं रहा, किसी ने लोगों की जाति या धर्म का पता लगाने की जहमत नहीं उठाई, सभी लोगों की जरूरतों के लिए किसानों ने आयोजन किया, चाहे वे विरोध का हिस्सा हों या नहीं।
हमारा तात्कालिक कार्य न्याय के लिए एकजुट होकर लड़ना है। जबकि हम अपने अधिकारों के लिए और हम पर हो रहे हमलों के खिलाफ एकजुट होकर लड़ते हैं, हमें यह ध्यान रखना होगा कि हमें लोगों के सशक्तिकरण के दीर्घकालिक लक्ष्य के लिए लड़ना है।