“राष्ट्रीय आपातकाल 1975-77: आज के लिए सबक” विषय पर आयोजित एक बैठक में लोक राज संगठन के सचिव, कॉम प्रकाश राव द्वारा 26 जून, 2022 को दिया गया भाषण।

25 जून-26 जून, 1975 की मध्यरात्रि को, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति फख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा की। 25 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक यानी करीब 21 महीने तक आपातकाल लागू रहा।

मज़दूरों की हड़तालों पर रोक लगा दी गई। ट्रेड यूनियन नेताओं और छात्र कार्यकर्ताओं को जेल में डाल दिया गया। सरकार की किसी भी आलोचना को प्रकाशित होने से रोकने के लिए प्रेस सेंसरशिप लगाई गई थी। लोग संविधान में वर्णित सभी मौलिक अधिकारों से वंचित थे। लोकसभा के चुनाव अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिए गए। गुजरात और तमिलनाडु में चुनी हुई सरकारों को बर्ख़ास्त कर दिया गया।

राज्य ने लोगों के मानवाधिकारों का बेरहमी से उल्लंघन किया। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर शहरों और गांवों में लाखों लोगों की ज़बरन नसबंदी कर दी गई। झुग्गीवासियों को जबरन बेदखल किया गया। उनके घर धराशायी हो गए।

आज तक लोगों को बताया जाता है कि इंदिरा गांधी ने राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने का फ़ैसला इसलिए लिया था क्योंकि अदालत के फै़सलों से उनके राजनीतिक करियर को ख़तरा था। पर यह सच नहीं है। सच तो यह है कि राष्ट्रीय आपातकाल सबसे बड़े इजारेदार घरानों के इशारे पर लगाया गया था। टाटा समूह के अध्यक्ष जे.आर.डी. टाटा ने 4 अप्रैल, 1976 को न्यूयॉर्क टाइम्स के साथ एक साक्षात्कार में कहा, “हालात बहुत बिगड़ चुके थे। आप कल्पना नहीं कर सकते कि हम यहां किस दौर से गुजरे हैं – हड़ताल, बहिष्कार, प्रदर्शन। क्यों, ऐसे भी दिन थे जब मैं अपने कार्यालय से बाहर सड़क पर नहीं जा सकता था।”

यह एक समय था जब राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था के प्रति लोगों के असंतोष के कारण मज़दूरों, किसानों, युवाओं और छात्रों द्वारा बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन किये जा रहे थे। 1974 की रेल कर्मचारियों की हड़ताल, देश के कई हिस्सों में किसान संघर्ष और बेरोज़गारी के खि़लाफ़ छात्रों और युवाओं के विरोध ने दिखाया कि लोग व्यवस्था से तंग आ चुके हैं। क्रांति के लिए कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के आह्वान पर बड़ी संख्या में युवा उत्साहपूर्वक साथ दे रहे थे।

पीछे मुड़कर देखें, तो लोगों के संघर्ष को कुचलने और क्रांति के ख़तरे को टालने के लिए राष्ट्रीय आपातकाल लगाया गया था।

अधिकारों की कोई गारंटी नहीं

आपातकाल ने दिखाया कि भारतीय गणराज्य और उसका संविधान लोगों के अधिकारों की गारंटी नहीं देता है।

आपातकाल की घोषणा संविधान का उल्लंघन नहीं थी। संविधान का अनुच्छेद-352 मंत्रिमंडल को अनुमति देता है कि वह राष्ट्रपति को आपातकाल घोषित करने और लोगों को मौलिक अधिकारों से वंचित करने की सलाह दे। समाज के सभी सदस्यों के अधिकारों के लिए गारंटी के नहीं होने की यह समस्या, मार्च 1977 में आपातकाल हटाए जाने के बाद ग़ायब नहीं हुई।

1977 से अब तक के 45 वर्षों में राजकीय आतंकवाद लगातार बढ़ा है। सत्ता में रहने वालों ने अपना शासन बनाए रखने के लिए अधिक से अधिक क्रूर बल पर भरोसा किया है। उन्होंने ”अलगाववाद”, “आतंकवाद”, “अतिवाद” आदि से लड़ने के नाम पर लोगों को उनके अधिकारों से वंचित करने के लिए एक के बाद एक कठोर लोकतंत्र-विरोधी क़ानून बनाए हैं।

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (रासुका), आतंकवाद और विघटनकारी गतिविधि अधिनियम (टाडा), आतंकवाद रोकथाम अधिनियम (पोटा) और गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यू.ए.पी.ए.) जैसे विभिन्न कठोर क़ानूनों का इस्तेमाल लोगों के लोकतांत्रिक अधिकारों को कुचलने के लिए किया गया है। इन सभी क़ानूनों का वास्तविक उद्देश्य सभी प्रकार की असहमति का अपराधीकरण करना और मनमानी गिरफ़्तारी और अनिश्चित काल के लिए निवारक निरोध को वैध बनाना है।

लोक राज संगठन ने राजकीय आतंकवाद का विरोध करने वाले अन्य लोगों और संगठनों के साथ इन क़ानूनों को निरस्त करने के लिए लगातार संघर्ष किया है। इस तरह के बड़े पैमाने पर विरोध के बाद टाडा को निरस्त कर दिया गया था। हालांकि, 2002 में शासकों ने इसे आतंकवाद रोकथाम अधिनियम, (पोटा) में बदल दिया। जब इसके खि़लाफ़ बड़े पैमाने पर विरोध के बाद पोटा को निरस्त कर दिया गया, तो इसके बदले गैरक़ानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम, या यू.ए.पी.ए. लाया गया।

हिन्दोस्तान पर शासन करने वाले लोग तेज़ी से लोगों के खि़लाफ़ क्रूर बल और कठोर क़ानूनों का सहारा ले रहे हैं। उन्होंने पिछले 47 वर्षों में आपातकाल की घोषणा किए बिना भी लोगों के अधिकारों को कुचलने के विभिन्न तरीक़े ढूंढ लिए हैं। अधिकारों का दमन हमारे देश में बद से बदतर होता चला गया है।

1977 में “लोकतंत्र की बहाली” के पीछे का उद्देश्य

1977 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी की हार को हिन्दोस्तानी लोकतंत्र की एक बड़ी जीत के रूप में देखा गया। परन्तु यह सच नहीं है। राजनीतिक सत्ता के स्वरूप में कुछ भी नहीं बदला था। आपातकाल से पहले लोगों के हाथ में फ़ैसले लेने की शक्ति नहीं थी। आपातकाल के बाद भी कुछ नहीं बदला। कार्यपालिका, मंत्रियों के छोटे समूह और राष्ट्रपति ने सभी शक्तियों को अपने हाथों में बरकरार रखा।

“लोकतंत्र की बहाली” उसी शासक वर्ग द्वारा बनाई गई योजना थी जिसने राष्ट्रीय आपातकाल लगाया था। इसका उद्देश्य यह भ्रम फैलाना था कि मौजूदा राज्य, संविधान और प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की व्यवस्था पूरी तरह से ठीक है और राजनीतिक व्यवस्था में गहरे बदलाव के लिए लड़ने की कोई ज़रूरत नहीं है। कि समस्या सिर्फ कांग्रेस पार्टी और इंदिरा गांधी से थी।

आपातकाल के दौरान विभिन्न विपक्षी नेताओं की गिरफ़्तारी का इस्तेमाल उन्हें लोकतंत्र के लिये लड़ने वालों के रूप में बढ़ावा देने के लिए किया गया था। जब 1977 के चुनावों की घोषणा हुई, तो इन नेताओं और उनकी पार्टियों ने एकजुट होकर जनता पार्टी बनाई। उन्होंने 1977 में लोकसभा चुनाव जीता और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनाई। जनता पार्टी के विघटन के बाद, शासक वर्ग ने कांग्रेस पार्टी के विकल्प के रूप में भाजपा का निर्माण करना शुरू कर दिया।

आपातकाल की घोषणा और “लोकतंत्र की बहाली” दोनों ही शासक वर्ग की योजना का हिस्सा थे। उन्होंने मिलकर मौजूदा व्यवस्था की सुरक्षा के उद्देश्य को पूरा किया। उन्होंने लोगों को एक ऐसी व्यवस्था के लिए एकजुट होने और लड़ने से रोका जिसमें लोग फ़ैसले लेने वाले होते और संविधान वास्तव में उनके मानव और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी देता।

निष्कर्ष

आपातकाल की घोषणा के समय से ही, हमारे देश के प्रबुद्ध दिमाग इस समस्या से जूझ रहे हैं कि कैसे यह सुनिश्चित किया जाए कि लोगों के मानवीय और लोकतांत्रिक अधिकारों का राज्य द्वारा किसी भी बहाने से उल्लंघन नहीं किया जा सके।

कम्युनिस्ट और अन्य राजनीतिक कार्यकर्ता, मानवाधिकार कार्यकर्ता, श्रमिकों के कार्यकर्ता, महिला और किसान आंदोलन, राजनीतिक सिद्धांतकार, प्रख्यात न्यायाधीश और सिविल सेवक, विश्वविद्यालय के शिक्षक, लेखक, फिल्मी हस्तियां – अनगिनत लोग समाज की इन ज्वलंत समस्याओं का जवाब खोजने में योगदान देने के लिए एक साथ आएं।

संघर्ष के इन लंबे वर्षों के दौरान, लोक राज संगठन के अगुवा संगठन, प्रिपरेटरी कमेटी फॉर पीपुल्स एम्पावरमेंट की स्थापना अप्रैल 1993 में की गई थी। इसने हिन्दोस्तानी लोकतंत्र के अनुभव की समीक्षा की।

आपातकाल की अवधि के अनुभव और उसके बाद की सभी घटनाओं से पता चलता है कि लोगों के हितों की रक्षा के लिए मौजूदा राज्य और उसके संविधान पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। संविधान हमें किसी भी अधिकार की गारंटी नहीं देता है। हमारे जीवन, आज़ादियों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकारों को किसी भी दिन छीना जा सकता है। वर्तमान व्यवस्था में हम शक्तिहीन हैं।

हिन्दोस्तानी लोगों के सामने आने वाली सभी समस्याओं की जड़ है लोगों का फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में हाशिए पर होना। आगे का रास्ता लोगों के सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने के लिए राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया में बदलना लाना था।

आज जो हमारा लोकतंत्र है, वह वास्तव में लोगों के लिए लोकतंत्र नहीं है। फ़ैसले लेने में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती है। फ़ैसले लेने की शक्ति सिर्फ संसद में बहुमत वाली पार्टी द्वारा गठित मंत्रिमंडल में निहित है।

वर्तमान व्यवस्था में कार्यपालिका विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं है और विधायिका जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है। उम्मीदवारों के चयन में लोगों की कोई भूमिका नहीं होती है। उम्मीदवारों को शासक वर्ग के राजनीतिक दलों द्वारा मतदाताओं पर थोपा जाता है। इन उम्मीदवारों को “जन प्रतिनिधि” कहा जाता है। लेकिन वास्तव में वे अपनी ही पार्टियों और इजारेदार घरानों के प्रतिनिधि हैं जो उन्हें वित्तपोषित करते हैं। लोग अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को वापस नहीं बुला सकते हैं यदि वे उनके काम से संतुष्ट नहीं हैं। लोग क़ानून बनाने की प्रक्रिया को शुरू नहीं कर सकते हैं।

एक पार्टी की जगह दूसरी पार्टी को सत्ता में लाने से यह वास्तविकता नहीं बदलेगी कि वर्तमान व्यवस्था में लोगों के मानवीय और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी नहीं है। इससे फ़ैसले लेने की शक्ति लोगों के हाथ में नहीं आएगी।

निर्वाचक और निर्वाचित के बीच के संबंध को बदलना होगा। मतदाताओं को चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन करने का अधिकार होना चाहिए। राज्य को चयन और चुनाव की पूरी प्रक्रिया का वित्तपोषण करना चाहिए। किसी भी चुनावी अभियान के लिए किसी भी निजी वित्तपोषण की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

लोगों को फ़ैसले लेने की शक्ति को पूरी तरह से निर्वाचित होने वालों के हाथों में नहीं सौंपना चाहिए। उन्हें अपने प्रतिनिधियों से हिसाब मांगने का अधिकार होना चाहिए। उन्हें किसी भी समय चुने गए व्यक्ति को वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिए।

लोगों को क़ानूनों और नीतियों को प्रस्तावित करने, स्वीकृत करने या अस्वीकार करने का अधिकार होना चाहिए; और संविधान में संशोधन या सुधार का अधिकार भी होना चाहिए।

एक बार जब लोगों के हाथ में राजनीतिक सत्ता होगी, तो वे यह सुनिश्चित करने में सक्षम होंगे कि अर्थव्यवस्था लोगों की जनता की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए उन्मुख हो। वे यह सुनिश्चित करने में सक्षम होंगे कि उनके मानवीय और लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी हो।

लोक राज संगठन का मानना है कि लोगों के सशक्तिकरण का सवाल एक गैर-पक्षपाती मुद्दा है। लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाली सभी राजनीतिक ताक़तों को एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने के लिए काम करने के लिए हाथ मिलाने की ज़रूरत है जिसमें राजनीतिक सत्ता वास्तव में लोगों के हाथों में हो। तभी हम अपने देश की समस्याओं का समाधान शुरू कर सकते हैं।

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