किसान आंदोलन का समर्थन करने के लिए इंडियन वर्कर्स एसोसियेशन (ग्रेट ब्रिटेन) का बुलावा –

दोस्तों,

26 जनवरी की ट्रेक्टर परेड को हाईजैक करने और किसानों के संघर्ष को बदनाम करने की कोशिशें अधिकांश लोगों को अब तक मालूम हो गयी हैं। लाल किले पर निशान साहिब के फहराने में पुलिस व सरकार की भूमिका का काफी हद तक पर्दाफाश हुआ है और धीरे-धीरे सब कुछ स्पष्ट हो जायेगा। हिन्दोस्तानी राज्य का नियंत्रण करने वाला शासक वर्ग, जिसमें इजारेदार पूंजीवादी घराने शामिल हैं, उसे 26 जनवरी तक किसान संघर्ष को तोड़ने में कोई सफलता नहीं मिल पायी थी। वह बहुत ही हताश था। कभी उसने पांच सदस्यों वाली कमेटी की बात की तो कभी कानूनों को लागू करने से टालने की। समस्या को टालने के लिये उसने सर्वोच्च अदालत का ज़रिया भी अपनाया। इस दौरान किसानों को आतंकवादी, खालिस्तानी और पाकिस्तान का एजेंट बताकर उसने किसानों को बदनाम करने का और लोगों को भटकाने का हर संभव प्रयास किया। लाल किले की घटना को अंजाम देने के लिये उसने अपने एजेंटों व भाजपा कार्यकर्ताओं का इस्तेमाल किया। अब उसने कुछ किसान नेताओं सहित 37 लोगों पर मुकदमें दायर किये हैं। इनमें लोगों के अधिकारों के लिये लड़ने वाले विभिन्न कार्यकर्ता भी शामिल हैं।

संसद, न्यायपालिका, पुलिस व सुरक्षा बलों जैसे राज्य के विभिन्न अंगों की असली भूमिका के बारे में अब हर कोई जानता है। लेकिन लोगों को हिन्दोस्तान के संविधान के बारे में बहुत भ्रम है। वे अभी भी समझते हैं कि इसके तहत न्याय मिलता है। राज्य के विभिन्न अंगों का लोगों को अनुभव है जब उन्हें एक जगह से दूसरी जगह दौड़ाया जाता है। विदेशों में रहने वाले, हम हिन्दोस्तानी लोग, जब भी हम हिन्दोस्तान जाते हैं तब हमें पटवारी से लेकर, क्लर्क, हवाई अड्डे के अधिकारी और उच्च पदाधिकारी तक, राज्य के सभी अधिकारी हमें जलील करते हैं और हमारे साथ अभद्र व्यवहार करते हैं जिसमें रिश्वत मांगना शामिल है। संसद के बारे में तो हमें कोई भ्रम नहीं होना चाहिये जिसमें, कोई भी पार्टी सत्ता में क्यों न हो, हमेशा ही कार्पोरेट घरानों का अजेंडा ही आगे किया जाता है। ये अजेंडा पूरी तरह से लोगों के हितों के खि़लाफ़ होता है। हर मुद्दे के ज़रिये लोगों में फूट डाली जाती है – चाहे वह नदी के पानी में हिस्सेदारी का विवाद हो या भाषा, राष्ट्रीय अधिकारों, धार्मिक या जाति के प्रश्न हों, या मज़दूरों की रोज़ी-रोटी के प्रश्न हों। इन सभी समस्याओं का इस्तेमाल लोगों के बीच फूट डालने के लिये और उन्हें अपने अधिकारों से वंचित करने के लिये किया जाता है।

अदालतों से न्याय पाने के लिये लोग पूरी ज़िन्दगी बिता देते हैं और फिर भी उन्हें न्याय नहीं मिल पाता है। जीवन का अनुभव दिखाता है कि पुलिस की ज़िम्मेदारी लोगों का बचाव करना नहीं है बल्कि पूंजीपतियों के हितों का बचाव करना होता है। दिल्ली में हुई घटनाएं भी यही दिखाती हैं। हमें यही बताया जाता है कि सुरक्षा बल विदेशी ताक़तों से देश की रक्षा करने के लिये होते हैं। परन्तु इन सुरक्षा बलों का बार-बार इस्तेमाल लोगों के संर्घषों को कुचलने के लिये किया जाता है जैसा कि आज भी हो रहा है।

राज्य के अंतिम अंग, संविधान को एकदम पवित्र बताया जाता है, जिसे ”हम, देश के लोगों“ ने 26 जनवरी, 1950 को अपनाया था। जबकि सच्चाई यह है कि संविधान बनाने वाली संविधान सभा में केवल वही लोग थे जो शिक्षित व धनवान थे, यानी कि आबादी के दसवें हिस्से से कम। उस वक्त संविधान सिर्फ अंग्रेजी में उपलब्ध था जिसकी वजह से संविधान पर चर्चा के वक्त बहुत से सदस्य इसको समझ भी नहीं सके थे।

सबसे अहम बात है कि इस संविधान का 75 प्रतिशत हिस्सा 1935 के भारत सरकार अधिनियम (गवर्मेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट) की शब्दशः नकल है। ब्रिटिश सरकार ने 1935 के संविधान को अपने देश की श्रमशक्ति व संपन्न संसाधनों को लूटने के साधन बतौर बनाया था। 1947 के बाद उसी राज्य को बरकरार रखा गया।

कृषि के इन तीनों काले कानूनों को बनाने की प्रक्रिया में कार्पोरेट घरानों की सरकार ने स्वयं संविधान का उल्लंघन किया है। और इस उल्लंघन के बारे में सर्वोच्च अदालत आंखें मूंदे बैठी है। केरल की सरकार तथा बहुत से किसान आंदोलन के समर्थक वकीलों ने एक याचिका दायर की हुई है कि ये कानून गैर-संवैधानिक हैं। परन्तु सर्वोच्च अदालत ने आज तक इस याचिका की सुनवाई नहीं की है।

कार्पोरेट घरानों की सरकार की नीच हरकतों और पुलिस व सुरक्षा बलों के बर्बर हमलों के बावजूद इन तीनों कानूनों को रद्द कराने का संघर्ष जारी है। किसान व मज़दूर अविचलित और एक अभूतपूर्व दृढ़ता के साथ इस संघर्ष को चला रहे हैं। गौरतलब है कि संघर्ष ने इस प्रचार का भ्रम तोड़ दिया है कि सरकार या पार्टी बदलने से समस्या का हल निकल जायेगा। संयुक्त किसान मोर्चा के एक नेता ने साफ़-साफ़ शब्दों में कहा कि, ”हम एक ऐसी व्यवस्था लाना चाहते हैं जिसमें फैसले लेने वाले मज़दूर और किसान होंगे।“

ऐसी नयी व्यवस्था पूरी तरह से मज़दूरों व किसानों द्वारा संचिलित होगी। तीनों काले कानूनों को रद्द कराने के बाद, हमें राजसत्ता की बागडोर अपने हाथों में लेने के संघर्ष को जारी रखना होगा। अगर ये कानून रद्द नहीं भी किये जाते, तब भी हमें मज़दूरों व किसानों के हाथों में सत्ता लाने के संघर्ष को जारी रखना होगा। तभी लोगों की समस्या का एक स्थायी समाधान निकल सकेगा।

इंडियन वर्कर्स एसोसियेशन (ग्रेट ब्रिटेन) ब्रिटेन व अन्य देशों में रहने वाले सभी हिन्दोस्तानी लोगों को बुलावा देती है कि पूरी ताक़त से किसान आंदोलन का समर्थन करें। इसके साथ-साथ, हम अपील करते हैं कि देशी और विदेशी शोषकों से देश को आज़ाद करने के हिन्दोस्तान ग़दर पार्टी, शहीद भगत सिंह तथा अनगिनत अन्य शहीदों के सपनों को पूरा करने का संघर्ष जारी रखें।

मोदी सरकार के कपटी दांव-पेच मुर्दाबाद!

किसानों के खि़लाफ़ आतंक मुर्दाबाद!

मज़दूरों-किसानों की एकता ज़िन्दाबाद!

इंक़लाब ज़िन्दाबाद!

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