बाबरी मस्जिद के विध्वंस के गुनहगारों को सज़ा दिलाने का संघर्ष जारी रहेगा!

शांति और सांप्रदायिक भाईचारा बनाने के लिए गुनहगारों को सज़ा देना निहायत ज़रूरी है!

लोक राज संगठन का आह्वान, 16 नवम्बर 2020

6 दिसम्बर 1992 हिन्दोस्तान के इतिहास में विशेष रूप से एक महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन हिन्दोस्तान की संसद की दो प्रमुख पार्टियों ने अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण की नींव डालने के लिए उसी ज़मीन पर खड़ी 450 वर्ष पुरानी बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने में मिलीभगत की। बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद हुए सांप्रदायिक क़त्लेआम मुसलमान धर्म के लोगों को नीचा दिखाने और उन्हें बेइज्ज़त करने के मक़सद के साथ किया गया था। निसंदेह यह कांड हमारे समाज के दिल में एक खंजर की तरह था जिसका मक़सद था हम लोगों की एकता और एकजुटता को चकनाचूर करना।

यह बेहद साफ था कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक सोची-समझी और पूर्व-नियोजित कार्यवाही थी। इस घटना से पहले देशभर में एक सांप्रदायिक उन्माद का माहौल तैयार किया गया। राजीव गांधी की कांग्रेस सरकार ने 1986 में हिन्दुओं को पूजा करने के लिए मस्जिद के दरवाजे खोले, तो भाजपा ने बाबरी मस्जिद को तोड़ने के लिए देशभर में अभियान चलाया। दोनों ही पार्टियों ने एक साथ मिलकर पूरे देश में सांप्रदायिक जहर फैलाने का काम किया। 6 दिसम्बर, 1992 को केंद्र में बैठी कांग्रेस की सरकार और उत्तर प्रदेश में बैठी भाजपा की सरकारों ने मिलकर यह सुनिश्चित किया कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस को रोकने के लिए सुरक्षा बल कुछ न कर पाएं। भाजपा के नेता उन लोगों में थे जिनकी निगरानी में इस गुनहगार घटना को अंजाम दिया गया, जिसका पूरे देश और दुनियाभर में जीवंत प्रसारण किया गया।

लेकिन इन सबके, और सरकार द्वारा गठित तमाम जांच आयोगों के सामने पेश किये गए तमाम सबूतों के बावजूद 2020 में सरकार द्वारा गठित सी.बी.आई. अदालत ने सभी लोगों को बाइज्जत बरी कर दिया जिनका नाम एफ.आई.आर. में दर्ज था, और जो उस समय विध्वंस की जगह पर मौजूद थे। इसमें खास तौर से भाजपा और विश्व हिन्दू परिषद के वरिष्ठ नेता शामिल थे। इन सभी को इसलिए बरी कर दिया गया क्योंकि कोर्ट को उन लोगों द्वारा बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने की साजिश रचने का “कोई सबूत नहीं मिला”।

इससे केवल एक वर्ष पहले, सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने ज़मीन की मालिकी के विवाद पर एकमत से फैसला सुनाते हुए राम लल्ला विराजमान को उस ज़मीन के असली हक़दार करार दिया। साथ ही उन्होंने बाबरी मस्जिद पर वक्फ बोर्ड के दावे को खारिज़ करते हुए उन्हें कुछ दूरी पर मस्जिद का निर्माण करने के लिए एक वैकल्पिक ज़मीन देने का प्रस्ताव पेश किया, जबकि बाबरी मस्जिद की ज़मीन पर राम मंदिर का निर्माण किया जायेगा।

लगभग पूरे तीन दशकों तक कानूनी प्रक्रिया को खींचने के बाद, देश की अदालत ने स्वीकार किया कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस एक गैर-कानूनी कार्यवाही थी, लेकिन भारी मात्रा में तमाम चश्मदीद गवाहों के बयानों, और पुख़्ता सबूतों के बावजूद किसी को भी इस गुनाहगार कार्यवाही के लिए दोषी करार नहीं दिया गया। सांप्रदायिक भाईचारा बनाये रखने के नाम पर सभी को इस फैसले को स्वीकार करने के लिए कहा जा रहा है। लेकिन सांप्रदायिक भाईचारा बनाना तो दूर अदालत के इस फैसले ने उन घावों को और भी ज्यादा गहरा कर दिया है, जो घाव मुसलमान समुदाय को 1992 में दिए गए थे। किस तरह से इसे इंसाफ कहा जा सकता है, जब इंसानियत के ख़िलाफ़ किये गए गुनाहों के लिए उसके गुनहगारों को सज़ा नहीं दी गयी है? किस तरह से यह फैसला सांप्रदायिक निर्माण कर सकता है, जब एक पूरे समुदाय को कटघरे में खड़ा कर दिया गया है और इंसाफ के लिए उनकी मांग को ठुकरा दिया गया है?

गुनाहों पर पर्दा डाला जाना और गुनाहगारों के ख़िलाफ़ कार्यवाही न करना, इस बात को हमारे देश  के लोगों ने कतई स्वीकार नहीं किया और लोगों के बीच खुल्लम-खुल्ला भेदभाव करने वाले 2019 के सी.ए.ए. नागरिकता अधिनियम जैसे कानूनों की कड़ी निंदा करते हुए लाखों करोड़ों लोग सड़कों पर उतर आये। इसके जवाब में हुक्मरानों ने मुसलमान लोगों को निशाना बनाते हुए उत्तर-पूर्वी दिल्ली में सांप्रदायिक कत्लेआम आयोजित किये। सच्चाई को सर के बल खड़ा करते हुए हुक्मरानों ने उल्टा मुसलमान समुदाय पर ही हिंसा आयोजित करने का आरोप लगाया और सैकड़ों नौजवानों को “साजिश” रचने के झूठे आरोपों के तहत गिरफ्तार किया। यह सब मुसलमान समुदाय को संदेश देने के मक़सद से किया गया कि “यदि तुम आवाज़ उठाने की जुर्रत करोगे, तो हम तुम्हारा भी यही हश्र करेंगे”।

इन घटनाओं ने राजनीति के अपराधीकरण का पूरी तरह से पर्दाफाश कर दिया और कई मज़दूर, महिला और मानव अधिकार संगठनों ने मिलकर ने 22 नवंबर, 1993 को फिरोजशाह कोटला में इसके ख़िलाफ़ एक रैली आयोजित की। उन्होंने ज़मीर के मालिक देश के सभी महिला और पुरुषों से आह्वान किया कि लोगों के हाथों में सत्ता देने के लिए जनतंत्र की मौजूदा व्यवस्था और उसकी राजनीतिक प्रक्रिया में बुनियादी परिवर्तन लाने के लिए वह सभी मिलकर काम करें। उन्होंने पूजा के किसी भी स्थल को तोड़े जाने का विरोध किया और जमीर के अधिकार की हिफाज़त में आवाज़ उठाई – ज़मीर के अधिकार का अर्थ है, हर एक इंसान को अपनी पसंद की आस्था रखने का अधिकार। उन्होंने नारा बुलंद किया “एक पर हमला, सब पर हमला!”। राजनीति के अपराधीकरण का अंत करने और देश में राजनीतिक प्रक्रिया पर हुक्मरानों की प्रमुख पार्टियों के दबदबे को ख़त्म करने के कार्यकर्ताओं के इस आह्वान ने राष्ट्रीय चेतना को झंकझोर दिया। इस दिशा में एक ठोस कदम के रूप में उन्होंने जून 1993 में प्रिपरेटरी कमेटी फॉर पीपल्स एम्पावरमेंट को जन्म दिया जो आगे चलकर लोक राज संगठन के रूप में पुनर्गठित की गयी।

इस पूरे दौर में लोक राज संगठन लगातार यह मांग उठाता आया है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस करने वाले और देशभर में व्यापक पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा आयोजित करने वाले गुनहगारों को सज़ा देकर इंसाफ किया जाए। हुक्मरान तबकों द्वारा इन घटनाओं को “भूल जाने और गुनहगारों को माफ़ करने” के तमाम दबाव के बावजूद हमनें अपना लगातार संघर्ष जारी रखा है। हम यह भी मांग करते आये हैं कि 1984 में सिखों के जनसंहार, 2002 में गुजरात में मुसलमानों के जनसंहार और हाल ही में उत्तर-पूर्वी दिल्ली में आयोजित सांप्रदायिक हिंसा जैसे भयंकर गुनाहों के लिए ज़िम्मेदार गुनहगारों को सज़ा दी जाए।

लोक राज संगठन बार-बार यह दोहराता आया है कि बाबरी मस्जिद का विध्वंस और उसके बाद मुंबई, सूरत और देश के अलग-अलग हिस्सों में आयोजित हिंसा, इन सभी दर्दनाक घटनाओं ने इस हकीक़त को नंगा कर दिया है कि मौजूदा जनतंत्र की व्यवस्था में लोग राजनीतिक सत्ता से पूरी तरह से वंचित हैं। अपने “चुने हुए प्रतिनिधियों” पर हमारा कोई बस नहीं है, जो अपने निहित स्वार्थ के लिये कोई भी जुर्म कर सकते हैं और उनपर कोई कार्यवाही नहीं होती है।

भले ही संविधान की उद्देशिका में “हम, भारत के लोग,” जैसे बड़े-बड़े शब्दों का इस्तेमाल किया गया है, लेकिन इस संविधान के तहत राजनीतिक सत्ता लोगों में निहित नहीं है। संसद के भीतर फैसले लेने की शक्ति पूरी तरह से मंत्रीमंडल में संकेंद्रित है। मौजूदा राजनीतिक प्रक्रिया लोगों की भूमिका को केवल वोट देने तक सीमित कर देती है, जहां उन्हें खुदगर्ज़ हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियों द्वारा खड़े किये गए किसी उम्मीदवार को वोट करने का विकल्प दिया जाता है, जिनके पास विशाल धनबल का समर्थन हासिल होता है। संसद के लिये चुने गए प्रतिनिधि लोगों के प्रति नहीं बल्कि, अपनी पार्टी के प्रति जवाबदेह होते हैं। न्यायपालिका की नियुक्ति भी कार्यकारी मंडल करता है और न्यायपालिका भी लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं होती है। संक्षिप्त में देश की संप्रभुता मुट्ठीभर लोगों के हाथों में निहित है, जिनके नुमाइंदे ऐसा बर्ताव करते हैं जैसे वे खुद अपने आप में एक कानून हैं। बाबरी मस्जिद पर हाल में लिए गए तमाम फैसले इस कड़वी हकीक़त को साबित करते हैं।

बाबरी मस्जिद से जुड़ी यह तमाम घटनाएं, बेशक हमारे यकीन को और मजबूत करती हैं कि लोगों के हाथों में सत्ता देने के लिए मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था में बुनियादी परिवर्तन करना निहायत ही ज़रूरी है। तब जाकर समाज से सांप्रदायिक हिंसा, राजकीय आतंकवाद, भ्रष्टाचार, शोषण, भयंकर गरीबी और अधिकारों के व्यापक उल्लंघन की बीमारी का इलाज करना संभव होगा।

आज तमाम तरह की दानवीय शक्तियां समाज में सांप्रदायिक हिंसा भड़काने, धर्म के आधार पर लोगों को बांटने, संगठित होने और ज़मीर के अधिकार सहित तमाम अधिकारों पर हमले करने की लगातार कोशिश कर रही हैं। इन कठिन परिस्थितियों में ज़मीर के मालिक सभी लोगों का यह फर्ज़ बनता है कि वे एकजुट होकर भारी तादाद में सड़कों पर उतरें और इन हमलों का और राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों को हाशिये पर धकेले जाने का विरोध करें।

आइये, हम सब 6 दिसंबर, 2020 को सुबह 10 बजे, मंडी हाउस से जंतर-मंतर तक आयोजित इस रैली में शामिल हों। यह रैली लोक राज संगठन सहित कई अन्य संगठन मिलकर आयोजित कर रहे हैं।

एक पर हमला, सब पर हमला!

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