लोक राज संगठन का बयान, 9 जनवरी 2015.
हाल के संसद के शीतकालीन संत्र में लोकसभा ने कोयला खनन (विशेष प्रावधान) विधेयक 2014 पारित किया। विपक्ष की पार्टियों ने मांग की कि विधेयक को स्थायी समिति को विचारार्ध भेजा जाये। परन्तु, इसे ध्वनि मत से ही पारित कर दिया गया। इस विधेयक का विरोध करना जरूरी है क्योंकि इससे सिर्फ बड़े इज़ारेदारों को ही लाभ मिलेगा। यह इस सिद्धांत का उल्लंघन करता है जिसके अनुसार अंतिम तौर पर प्राकृतिक संसाधन की मालिकी लोगों की है और सरकार का दायित्व है कि इनके इस्तेमाल का नियमन लोगों के हित में करे।
विधेयक में प्रस्ताव है कि कोयला खनन के अंतिम उपयोगकर्ता की शर्त को खत्म किया जाये और केन्द्र व राज्य सरकारों को अनुमति हो कि वे निजी उद्यमों के साथ सांझे उपक्रम बनाये और उन्हें कोयला खंड आबंतिक करे। इसका तात्पर्य है कि विधेयक न केवल कोयला खदानों की नीलामी को बढ़ावा देता है बल्कि यह कोयला खदान (राष्ट्रीयकरण) (सी.एम.एन.) संशोधन कानून, 1976 और खदान व खनिज (विकास व नियामन) (एम.एम.डी.आर.) कानून 1957 में संसदीय वाद विवाद के बिना ही संशोधन करना चाहता है।
पिछले वर्ष सितम्बर में, सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा कर दी थी कि 1993 से 2010 के बीच किये गये कोयला खंड आबंटन गैरकानूनी थे। इसके लिये सरकार को अक्टूबर में एक अध्यादेश लाना पड़ा। यह विधेयक इसी अध्यादेश के बदले में लाया गया था और इसका प्रयास है कि रद्द की 72 कोयला खदानों को ऊर्जा, इस्पात और सीमेंट क्षेत्रों के लिये फरवरी तक चलाने की अनुमति के साथ, देश में व्यावसायिक खनन को अनुमति मिले।
सी.एम.एन. तथा एम.एम.डी.आर. कानूनों में व्यावसायिक खनन को सक्षम बनाने के लिये प्रावधान जोड़े जा रहे हैं। सी.एम.एन. कानून की धारा 3(क) जोड़ी जा रही है जो केन्द्र व राज्य सरकारों व उनकी कंपनियों को अनुमति देती है कि, राज्य सरकार द्वारा दिये गये लायसेंस के अनुसार, किसी भी निजी कंपनी के साथ सांझे उपक्रम ”किसी भी आकार में, चाहे अपने लिये या बेचने के लिये या अन्य किसी मकसद से“ देश में खनन कारोबार चला सकें।
सभी कंपनियां, पहली अनुसूची के तहत (जिनमें वे खदानें शामिल हैं जिनमें खोजबीन अभी तक की जानी है) 132 खदानों के लिये बोली लगा सकती हैं। दूसरी और तीसरी श्रेणी की खदानों को (क्रमशः जिनसे पहले ही कोयला खनन हो रहा है या जिनमें उत्पादन शुरू होने ही वाला है), ऊर्जा, इस्पात व सीमेंट क्षेत्र के विशिष्ट उपयोगकर्ताओं की कंपनियों के लिये खोला जायेगा।
1949 से ही, जब जवाहर लाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान के मसौदे के 24वें अनुच्छेद पर बहस शुरू की थी, तब ही अनेक सदस्यों ने दलील दी थी कि बड़ी-बड़ी खदानों को बिना किसी मुआवजे के सरकार को अपने हाथों में ले लेना चाहिये। उनका तर्क था कि खदानें व वन जैसी प्रकृति की देन सभी लोगों की हैं। चूंकि इन्हें विदेशी राज ने लोगों से छीना था अतः ऐसी इजारेदार खदानों तथा खनन के लिये दी गई रियायतों को बिना मुआवजे वापिस लेने में कोई हर्ज नहीं हो सकता। अगर खदानें कई सालों से चलायी जा रही हैं तब तो ऐसा करना और भी जायज होगा क्योंकि इनके मालिक अपने पूंजी निवेश का कई गुना फायदा उठा चुके हैं।
संविधान सभा की बहुसंख्या ने इस तर्क को नामंजूर कर दिया था। खुद नेहरू ने सदस्यों को हिदायत दी थी कि वे मूलभूत उद्योगों के राष्ट्रीयकरण और जब्त करने की बातें न करें। नये संविधान में प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण के लिये कोई प्रावधान नहीं थे। सत्तर के दशक के शुरुवाती सालों तक कोयला खनन क्षेत्र में संहार (स्लाॅटर) खनन, सुरक्षा नियमों का उल्लंघन, मशीनीकरण करने की अनिच्छा और बेहद मुनाफाखोरी काबू के बाहर थी। सत्तर के दशक में लोगों की दुहाई और कोयले की अत्याधिक कमी के कारण इंदिरा गांधी सरकार को आखिर कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण करना ही पड़ा। इस्पात व सीमेंट क्षेत्र के बड़े निजी इजारेदारों ने इसका स्वागत किया क्योंकि अब उन्हें समय पर, पर्याप्त मात्रा में और कम कींमत पर कोयला उपलब्ध होने की सुनिश्चिति होगी।
1973 में कोयला खनन (राष्ट्रीयकरण) कानून के जरिये कोयला खनन का राष्ट्रीयकरण हुआ। 1973 के कानून में 1976 में संशोधन लाया गया जिससे सभी निजी पट्टेदारों के पट्टे रद्द कर दिये गये परन्तु लोहा व इस्पात के उत्पादन की बंदी खदानों को निजी हाथों में रहने दिया गया और साथ ही कुछ अन्य छोटी खदानों के उपपट्टों को जिनको रेल परिवन की जरूरत नहीं थी और जो आर्थिक विकास के योग्य नहीं थी।
1993 तक, राष्ट्रीयकरण का मकसद पूरा हो गया था। लोहा व इस्पात, सीमेंट व ऊर्जा क्षेत्रों में लगे बड़े औद्योगिक घरानें राष्ट्रीकृत कोयला खदानों से अनियमित आपूर्ति से अब खुश न थे। वे बंदी खदाने चाहते थे जो पूरी तरह उनके नियंत्रण में हों। कुछ व्यावसायिक घराने इतने बड़े हो चुके थे कि उनमें स्वयं बंदी कोयला खदाने चलाने की क्षमता थी और वे खनन क्षेत्र को हिन्दोस्तान और विश्व में जबरदस्त मुनाफा कमाने को एक नये अखाड़े के रूप में देख रहे थे। इस मांग को पूरा करने के लिये नरसिम्हा राव की सरकार ने कोयला खनन कानून में संशोधन करके विशिष्ट उद्योगों में निजी क्षेत्र की कंपनियों को बंदी खदानों के लिये अनुमति दी।
अतः एक के बाद एक, विभिन्न सरकारों ने कोयला खनन के निजीकरण के कदम उठाये। फलस्वरूप, कोयला खदानों के आबंटन में जबरदस्त घोटाले होने लगे। सी.ए.जी. की कोलगेट घोटाले की रिपोर्ट ने सार्वजनिक व निजी क्षेत्र की कंपनियों के 2004 और 2009 के बीच के विवादास्पद आबंटनों को बेनकाब किया। इस दौरान करीब 44 अरब मीट्रिक टन कोयला संचय आबंटित किया गया जबकि पूरे विश्व का सालाना उत्पादन सिर्फ 7.8 अरब मीट्रिक टन है! हिन्दोस्तान में सालाना 58.5 करोड़ मीट्रिक टन कोयला उत्पादन होता है। इससे धोखेबाजी की विशालता का कुछ आभास होता है जिसका वर्णन सी.ए.जी. ने ”पारदर्शता की कमी“ और ”सबसे सही मूल्य तक पहंुचने में विफलता“ जैसे बहुत ही नम्रतापूर्वक शब्दों में किया था। इस आबंटन के तरीके के तहत बंदी खदानों वाली कंपनियों को बहुत कम कीमतों पर कोयले के महान संचयों पर अधिकार दिये गये थे जिससे सालों साल आपूर्ति होती रहती।
इतने सालों का अपने लोगों का अनुभव दिखाता है कि कोयला खनन क्षेत्र को निजी क्षेत्र के हाथों में नहीं छोड़ा जा सकता है। कोयले का खनन और इस्तेमाल पूरे समाज की पूरी जरूरत को देखते हुये किया जाना चाहिये।
कोयला खनन के निजीकरण के लिये पहले अध्यादेश जारी करना और फिर कोयला खनन (विशेष प्रावधान) कानून, 2014 पारित करना दिखाता है कि कार्यपालिका, विधानपालिका और न्यायपालिका, एक दूसरे से सांठगांठ में बड़े इजारेदारों के हित में काम करते हैं, जिसमें आखिर में, कार्यपालिका की ही चलती है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय ने संप्रग सरकार के खनन लाइसेंसों को गैरकानूनी घोषित किया, उसने भाजपा के नेतृत्व में राजग सरकार द्वारा जारी किये अध्यादेश को चुनौती नहीं दी जिसके जरिये कोयला खदानों की ई-नीलामी होगी। शासनतंत्र ने सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का फायदा उठाकर कोयला खनन विधेयक में संशोधन किया और इस क्षेत्र पर निजीकरण थोप दिया। इतने महत्वपूण मुद्दे पर, जिससे करोड़ों लोगों के जीवन-यापन पर असर आयेगा, मौजूदा विधेयक को बिना किसी गंभीर वाद-विवाद के लोकसभा में ध्वनि मतदान के जरिये पारित किया गया। ऐसा करने के लिये, संसद में भ्रामक वाद-विवाद के पर्दे की आड़ ली गयी थी। विधेयक बनाने में कोयला खनन क्षेत्र की यूनियनों के साथ परामर्श भी नहीं किया।
जिस तरह से हिन्दोस्तान के लोगों की सम्पत्ति, कोयले की खदानों, का बिना किसी चर्चा के निजीकरण किया जा रहा है, वह दिखाता है कि मौजूदा राजनीतिक प्रक्रिया में लोगों की भूमिका बहुत ही कम है। इस व्यवस्था में कोई भी संवैधानिक तंत्र या प्रावधान नहीं हैं जो लोगों को अपने हित में कानूनों का प्रस्ताव करने के लिये सक्षम करते हों या मौजूदा कानूनों में संशोधन लाने की प्रक्रिया में लोगों का सहभाग संभव करते हों। वर्तमान संविधान, खदानों, खनिजों तथा प्राकृतिक संसाधनों पर लोगों के अधिकारों की रक्षा नहीं करता है।
यह सब ध्यान दिलाता है कि नये तंत्रों के सृजन की जरूरत है जो सुनिश्चित कर सकें कि अर्थव्यवस्था का लक्ष्य लोगों की जरूरतों को पूरा करना हो न कि मुट्ठीभर इजारेदार घरानों के लालच को। इसके लिये लोगों