लोक राज संगठन का आह्वान, 9 जनवरी, 2014
हाल में हुये चुनाव क्या दिखाते हैं?
5 राज्यों में हाल में हुये चुनावों के नतीजे यह स्पष्ट संदेश देते हैं कि लोग वर्तमान परिस्थिति से बहुत असंतुष्ट हैं। कांग्रेस पार्टी जो इन पांच राज्यों में से तीन में और केन्द्र में सरकार चला रही थी, वह सिर्फ मीज़ोरम में ही सत्ता अपने हाथ में रख पायी है।
कांग्रेस पार्टी व भारतीय जनता पार्टी द्वारा राजनीति पर हावी रहने का विरोध लोगों ने अन्य तरीकों से भी किया है। इन पांच राज्यों में लाखों लोगों ने “उपरोक्त में से कोई नहीं“ (नोटा) पर पर बटन दबाया है, यानि कि चुनाव में खड़े सभी उम्मीदवारों को नकारा है।
दिल्ली के मतदाताओं ने सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार को बहुत ही स्पष्ट रूप से नकारा। बहुत ही आशा के साथ लोगों ने अपनी भावना प्रकट की है कि आम आदमी पार्टी को को दिल्ली में सरकार बनाने का मौका मिलना चाहिये।
ये चुनाव आसमान छूती महंगाई, बढ़ती बेरोजगारी, राजनीति के बढ़ते अपराधीकरण, भ्रष्टाचार और घोटालों, राजकीय आतंकवाद तथा बार-बार आयोजित की जा रही साम्प्रदायिक हिंसा की पृष्ठभूमि में हुये। चुनावी राजनीति में आम आदमी पार्टी का तेज़ी से उभार, लोगों की इस अपेक्षा को दर्शाता है कि इस कठोर वास्तविकता में कुछ तो बदलाव होगा। परन्तु, चुनाव से सभी समस्याओं की जड़, इस व्यवस्था का कोई भी मूल लक्षण नहीं बदला है।
वर्तमान अर्थव्यवस्था सिर्फ मुट्ठीभर बड़े कॉर्पोरेट घरानों व इजारेदारों को अमीर बनाती है जबकि लोगों को सुरक्षा व समृद्धि से वंचित करती है।
इस व्यवस्था में, मज़दूर व किसान, जो समाज की सारी भौतिक दौलत का उत्पादन करते हैं, उनके लिये यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि उनको अगले दिन भोजन मिलेगा की नहीं। करोड़ों मेहनतकश लोगों के सर पर न छत की सुरक्षा है और न ही शुद्ध पेयजल की व्यवस्था तथा न ही शौच के लिये समुचित व्यवस्थायें उपलब्ध हैं। महिलाओं को बराबरी का नागरिक नहीं माना जाता है और वर्तमान व्यवस्था में उनकी सुरक्षा सुनिश्चित नहीं है। वास्तव में, ये पुलिस व राज्य के अलग-अलग सुरक्षा बल तथा राज्य की दूसरी एजेंसियां हैं, जो महिलाओं पर हिंसा करते हैं। दिन-प्रतिदिन दलितों को, जाति के आधार पर भेदभाव और दमन का सामना करना पड़ता है, और यहां तक कि उनको अपनी जान से भी हाथ धोना पड़ता है, यदि वे सामाजिक प्रतिबंधों का उल्लंघन करने की जुर्रत करते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों का दमन होता है और बार-बार उन्हें साम्प्रदायिक हिंसा का निशाना बनाया जाता है। आदिवासी लोगों व देश के विभिन्न इलाकों के अन्य समूहों को उनकी पारंपरिक संपदाओं से वंचित किया जा रहा है और उनकी जीविका के विनाश का खतरा बढ़ गया है। पूर्वोत्तर, कश्मीर व अन्य स्थानों के लोगों को राजकीय दमन का शिकार होना पड़ता है। इन सभी को मौजूदा राज्य व्यवस्था कायम रखती है, यानि कि, कार्यपालिका, विधानपालिका, न्यायपालिका तथा नौकरशाही, सुरक्षा बल, जेल और राज्य के दूसरे संस्थान।
वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था व प्रक्रिया
अगर उक्त शोषणकारी अर्थव्यवस्था की नींव है, तो मौजूदा लोकतंत्र, जिसका प्रचार “दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र“ के रूप में किया जाता है, वह इस पर निर्मित इमारत है। यह इमारत ही वर्तमान अर्थव्यवस्था का बचाव करती है और उसे कायम रखती है, जिसमें मुट्ठीभर लोगों के पास उत्पादन के साधनों की मालिकी है और जो अधिकांश लोगों का शोषण करते हैं। इस व्यवस्था में अधिकांश लोगों को राजनीतिक सत्ता के इस्तेमाल से परे रखा जाता है। संविधान में यह कहे जाने के बावजूद कि, “हम, भारत के लोग … इस संविधान को आत्मसमर्पित करते हैं“, फैसले लेने की सर्वोच्च ताकत, यानि कि संप्रभुता, लोगों के हाथों में नहीं है। वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में लोग संप्रभु नहीं हैं। वे समाज की दिशा निर्धारित नहीं करते।
असली सत्ता कार्यपालिका के हाथों में रहती है – सत्तारूढ़ पार्टी या पार्टियों के गठबंधन के मंत्रीमंडल के हाथों में। विधानमंडल – संसद और राज्यों की विधान सभायें – कार्यकारी दलों के काम को वैधता दिलाती हैं। कार्यकारी सत्ता, वैधानिक सत्ता के अधीन नहीं है, जिसमें लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि होते हैं। इसी तरह, निर्वाचित विधानमंडल लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। वे अपनी-अपनी पार्टियों के प्रति जवाबदेह होते हैं, जिनसे उनको चुनाव में खड़े होने के लिये टिकट मिलता है। विधान सभाओं में मत प्रकट करते समय वे अपनी-अपनी पार्टियों के निर्देशों का पालन करते हैं न कि अपने ज़मीर का। न्यायमंडल तथा केन्द्रीय निर्वाचन आयोग (सी.इ.सी.), केन्द्रीय सतर्कता आयोग (सी.वी.सी.) जैसे दूसरे संवैधानिक निकाय, कार्यपालिका द्वारा नियुक्त किये जाते हैं और वे लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं होते। यह भी एक विडंबना है कि सी.इ.सी., जिसका काम मुक्त व निष्पक्ष चुनाव कराना है, वह स्वयं एक निर्वाचित निकाय नहीं है बल्कि उसे मनोनित किया जाता है!
मौजूदा पार्टीवादी राजनीतिक व्यवस्था, लोगों को राजनीतिक सत्ता से दूर रखने का काम भी करती है। जिस भी पार्टी या गठबंधन को सांसदों या विधायकों का बहुमत प्राप्त हो वह सरकार बनाता है और उसे अगले चुनावों तक अपनी मर्जी से राज करने का जनादेश होता है। संविधान के अनुबंध, सी.इ.सी., जन प्रतिनिधित्व कानून और विभिन्न चुनावी कानून यथास्थिति बरकरार रखने वाली पार्टियों द्वारा चुनावी प्रक्रिया पर दबदबा बनाये रखना सुनिश्चित करते हैं। हमेशा, सबसे शक्तिशाली आर्थिक हितों का प्रतिनिधित्व करने वाली पार्टियां ही सत्ता में चुन कर आती हैं। यह बात राडिया टेप से साफ हो गयी थी, जिससे यह स्पष्ट सिद्ध हो गया था कि सबसे शक्तिशाली कॉर्पोरेट घराने ही यह निर्णय लेते हैं कि किसकी सरकार बनेगी और कौन-कौन मंत्री बनेंगे।
संयोग से अगर, लोगों की आकांक्षाओं को व्यक्त करने वाली कोई पार्टी चुन कर आ जाती है, तब या तो इसे शासक वर्ग का अजेंडा अपनाना पड़ेगा या हिन्दोस्तानी राज्य के गुस्से का सामना करना पड़ेगा। 1959 में केरल में ऐसा ही हुआ था जब लोगों द्वारा निर्वाचित भाकपा सरकार को बर्खास्त कर दिया गया, क्योंकि उसने प्रांत में भूमि सुधारों व शिक्षा नीति के कुछ विशिष्ट कदम उठाये थे।
संसदीय प्रतिनिधित्ववादी लोकतंत्र की वर्तमान व्यवस्था, वेस्टमिंस्टर नमूने का शासन, कानून का राज, प्रशासन के तंत्र, सशस्त्र बल, बंदीगृह व अदालतें, और काले कानून, ये सभी उपनिवेशवादी विरासत के हिस्से हैं। इस विरासत को कायम रखने के लिये, बर्तानवी ताज से सत्ता का हस्तांतरण हिन्दोस्तानी शासक वर्ग और उपनिवेशवादी साम्राज्यवादी हितों के प्रतिनिधियों के हाथ में किया गया था। 1950 में हिन्दोस्तानी संविधान के अंगीकरण व हिन्दोस्तानी संघ के प्रवर्तन के द्वारा, एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था को स्वतंत्र हिन्दोस्तान के लिये अंगीकृत किया गया, जिसे एक विदेशी सत्ता ने हिन्दोस्तान पर राज करने के लिये स्थापित किया था। हिन्दोस्तानी शासक वर्ग ने उपनिवेशवादी विरासत को स्वेच्छा से अंगीकृत किया क्योंकि यह सत्ता उनको अंततः एक साम्राज्यवादी ताकत बन जाने के उनके लक्ष्य से मेल खाती थी। मुट्ठीभर अल्पसंख्या द्वारा अधिकांश हिन्दोस्तानी लोगों पर राज को कायम रखने के लिये और इसे अधिक सुदृढ़ बनाने के लिये, संविधान में सौ से भी ज्यादा संशोधन किये गये हैं या किये जाने के प्रस्ताव हैं।
उपनिवेशवादी काल की तरह ही, लोकतंत्र की मौजूदा व्यवस्था का मूल आधार-वाक्य है कि हिन्दोस्तानी लोग अपना शासन स्वयं करने के योग्य नहीं हैं और उनकी तरफ से उनके ऊपर शासन करने के लिये एक ताकत, एक न्यासी, की जरूरत है। न्यासी के रूप में राज्य की धारणा, हिन्दोस्तानी राजनीतिक सिद्धांत से मेल नहीं रखती है। एक “न्यासी“ की हैसियत से हिन्दोस्तानी राज्य, उसकी सभी कार्यवाइयों, उसके संविधान, उसके संस्थानों, उसकी जटिल रचना को लोगों के नाम पर उचित ठहराता है, जबकि असलियत में, वह मुट्ठीभर इजारेदारों व बड़े पूंजीपतियों के हित में काम करता है।
1951-52 के पहले चुनावों से लेकर अब तक, बार-बार यह सिद्ध हो चुका है कि नियमित चुनावों और नयी पार्टियों या गठबंधनों के आने से, हिन्दोस्तानी संविधान द्वारा स्वीकृत सत्ता का मूलभूत ढांचा बदला नहीं जा सकता है। मौजूदा संविधान मानवाधिकारों या लोकतांत्रिक अधिकारों की सुनिश्चिति नहीं करता है और न ही यह राष्ट्रों, महिलाओं, धार्मिक अल्पसंख्यकों या श्रमिकों के अधिकारों को मान्यता देता है। संविधान में दिये गये सभी “मूल अधिकारों“ को हरेक अनुच्छेद के तहत “युक्तियुक्त निर्बंधनों“ के प्रावधानों के द्वारा आसानी से नकारा जाता है। स्वास्थ्य, पोषण, रोजगार तथा दूसरे अधिकारों को मूल अधिकार नहीं माना गया है और उन्हें “दिशा-निर्देशों“ के भाग में रखा गया है जो मात्र प्रशंसनीय नीतिगत उद्देश्य हैं, जिनको लागू करने के लिये न तो कोई तंत्र है और न ही कोई कानून। निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) के प्रावधानों के तहत या किसी इलाके को “अशांत“ घोषित करके, ए.एफ.एस.पी.ए. जैसे काले कानून थोपे जाते हैं तथा सैनिक और अर्धसैनिक बलों को अपने ही लोगों के खिलाफ़ कश्मीर, पूर्वोत्तर व दूसरे इलाकों में तैनात किया जाता है।
संविधान में “बराबरी का अधिकार“ होने के बावजूद, हिन्दोस्तानी नागरिकों की पहचान जाति व धर्म के आधार पर की जाती है, और विशेषाधिकार दिये जाते हैं – जिसे पाखंडी प्रचार के ज़रिये सकारात्मक कार्यवाही का नाम दिया जाता है। आरक्षण की इस व्यवस्था में, ज्यादा से ज्यादा पिछड़े तबकों में से कुछ गिने-चुने कुलीनों को व्यवस्था में शामिल किया गया है, परन्तु उन तबकों के अधिकांश लोगों को आम तौर पर भेदभाव व दमन का सामना करते रहना पड़ता है। सत्ता की भूखी राजनीतिक पार्टियों को अपने वोट बैंक बढ़ाने का, और जाति पर आधारित दमन के विरोध में संघर्ष को तोड़ने व अस्त-व्यस्त करने का इस व्यवस्था ने उन्हें एक आसान तरीका दिया है।
हिन्दोस्तानी संविधान में “धर्मनिरपेक्षता“ की जो परिभाषा दी गयी है उसमें न तो राज्य को धर्म से अलग किया गया है और न ही धर्म से शिक्षा संस्थानों को। हिन्दोस्तानी राज्य धर्म के आधार पर लोगों को निशाना बनाता है, लोगों के बीच गहरी साम्प्रदायिक दरार डालता है और उनके बीच दुश्मनी पैदा करता है।
हिन्दोस्तानी संविधान अलग-अलग राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं व आदिवासी लोगों के अनुल्लंघनीय अधिकारों को नहीं मानता और यहां तक कि राष्ट्रों, राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करता है। मौजूदा हिन्दोस्तानी संघ राज्य की क्षेत्रीय परिभाषा पर आधारित है और इसकी बनावट ऐसी है कि केन्द्र, अभिजात वर्ग के राज को कायम रखने के लिये लोगों में फूट डालने के लिये, राज्य प्रांतों की सीमाओं को मनमाने ढंग से बदल सकता है, जैसा कि आज तेलंगाना में हो रहा है।
इस सबसे हम एक नतीजे पर पहुंच सकते हैं कि चुनावों के ज़रिये वर्तमान अर्थव्यवस्था व राजनीतिक प्रक्रिया में, जो लोगों की सभी समस्याओं का स्रोत है, इसके मूलभूत स्वभाव में थोड़ा सा भी परिवर्तन नहीं आता है। हम इस भ्रम में नहीं रह सकते हैं कि उचित कानूनों व उनके कार्यान्वयन के तंत्रों के ज़रिये, अधिकांश मेहनतकश लोगों के दावों को सुनिश्चित करने वाली तथा लोगों के मूल अधिकार व सुरक्षा प्रदान करने वाली, एक लोक-केन्द्रित राजनीतिक प्रक्रिया तथा राजनीतिक सत्ता स्थापित किये बगैर, हमारे जीवन में मूल परिवर्तन आ सकते हैं।
शासक प्रस्थापन एक स्थिर गठबंधन को बढ़ावा देना चाहता है जो उसके हितों को आगे बढ़ाये। 2014 के आम चुनाव में, शक्तिशाली हितों द्वारा अपने साम्राज्यवादी लक्ष्य पाने की दिशा में, निजीकरण व उदारीकरण के ज़रिये वैश्वीकरण के मज़दूर-विरोधी, किसान-विरोधी, राष्ट्र-विरोधी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिये, नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा बहुमत की सरकार सबसे पसंदीदा हो सकती है। साथ ही, जैसा कि मीडिया की कवरेज़ से प्रतिबिंबित होता है, इसी कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के लिये, वे दूसरे गठबंधनों को भी चुन सकते हैं।
लोगों का अजेंडा
जो राजनीतिक प्रक्रिया में एक मूल परिवर्तन चाहते हैं, वे सिर्फ यह अनुमान लगाने से संतुष्ट नहीं हो सकते कि कौन सा गठबंधन सत्ता में आयेगा। इस नयी स्थिति में, जहां लोग घटनाओं को आशा से देख रहे हैं, इसमें लोगों को सत्ता में लाने के आंदोलन को आगे ले जाने के लिये मौके नज़र आ रहे हैं। लोगों के हाथ में संप्रभुता सौंपने के लक्ष्य से, अन्य कई संगठनों के साथ मिल कर, लोक राज संगठन निम्नलिखित राजनीतिक सुधारों के आधार पर, लोगों के अजेंडे के लिये आंदोलन करता आया है।
1. लोगों द्वारा उम्मीदवारों का चयन किये बगैर चुनाव नहीं
इस समय आर्थिक तौर पर शक्तिशाली हितों द्वारा समर्थित पार्टियां मनमर्जी से कितने भी उम्मीदवार खड़े कर सकती हैं और लोगों पर उन्हें थोप सकती हैं। उम्मीदवारों का चयन करने के अधिकार को इन पार्टियों के हाथों से लेकर लोगों के हाथों में लाना होगा। नामांकित उम्मीदवारों में से चुनाव के लिये उम्मीदवारों की अंतिम सूची का चयन करने में मतदाताओं को पूरा अधिकार होना चाहिये। हरेक चुनाव क्षेत्र में एक कमेटी चुनी जानी चाहिये जिसे यह ताकत होगी कि किसी भी चुनाव के लिये उम्मीदवारों का चयन करने के अधिकार और दूसरे राजनीतिक अधिकारों को हासिल करने में, लोगों को सक्षम बना सके। प्रत्येक राज्य और केंद्रीय स्तर पर इन चुनाव समितियों को एक पुनर्गठित निर्वाचन आयोग की नींव बनना होगा।
अगर ऐसा किया जाता है तो पंजीकृत राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार और दूसरे सभी उम्मीदवारों, जिन्हें “निर्दलीय“ उम्मीदवार कहा जाता है और जिन्हें अपनी संगठनात्मक पहचान या चुनाव चिन्ह से वंचित किया जाता है, इनके बीच का भेदभाव खत्म हो जायेगा। साथ ही कुछेक “पंजीकृत“ पार्टियों व अन्य पार्टियों के बीच का भेदभाव खत्म हो जायेगा। सिर्फ इसी तरह के कदमों से चुनने व चुने जाने का अधिकार सर्वव्यापी हो सकता है।
2. राज्य को चुनाव प्रक्रिया के लिये धन देना चाहिये परन्तु किसी विशेष राजनीतिक पार्टी को नहीं!
जनता द्वारा चयन की प्रक्रिया से जो उम्मीदवार आगे आते हैं, उन सभी को मतदाताओं के सामने अपने प्रस्तावों और घोषणापत्रों को प्रस्तुत करने का समान अवसर मिलना चाहिये। किसी भी व्यक्तिगत उम्मीदवार या पार्टी को चुनाव अभियानों पर पैसा खर्च करने की इजाज़त नहीं होनी चाहिये। चयन और चुनाव प्रक्रिया का पूरा खर्चा सरकार को उठाना चाहिये। किसी भी राजनीतिक पार्टी को जनता के धन से एक भी पैसा या किसी और प्रकार की सबसिडी नहीं दी जानी चाहिये। सभी राजनीतिक पार्टियों को अपने सदस्यों और समर्थकों के स्वैच्छिक योगदान से अपना काम चलाना चाहिये। राजनीतिक पार्टी सांझी विचारधारा और राजनीतिक लक्ष्य वाले लोगों का समूह है, जिसमें और लोगों को भी जुड़ने को प्रेरित किया जा सकता है। किसी खास पार्टी को सरकारी “मान्यता” या सरकारी वित्तीय सहायता देने और इस तरह दूसरों की अपेक्षा उन्हें कुछ विशेष रुतबा देने का कोई औचित्य नहीं हो सकता है।
3. लोगों को कानून प्रस्तावित करने, जनमत संग्रह के ज़रिये मुख्य सार्वजनिक फैसलों पर सहमति प्रदान करने तथा चुने गये प्रतिनिधियों को किसी भी समय वापस बुलाने का अधिकार होना चाहिये!
चुनाव क्षेत्र समिति को यह सुनिश्चित करने की ताकत होनी चाहिये कि लोगों को नये कानून प्रस्तावित करने, सभी सार्वजनिक फैसलों के पारित होने में अहम भूमिका निभाने, और वापस बुलाने के अपने अधिकारों को हासिल करने के लिये सक्षम बनाया जाये। इन अधिकारों के लागू होने की सुनिश्चिति के लिये तंत्र होने चाहिये। चुने गये उम्मीदवारों को मतदाताओं के सामने नियमित तौर पर अपने काम का हिसाब देना होगा।
4. 21वीं सदी के हिन्दोस्तान के लायक एक संविधान का मसौदा बनाने के लिये एक संविधान सभा चुनी जाये!
1950 में अपनाया गया हिन्दोस्तानी गणराज्य का संविधान अपने बहुराष्ट्रीय और बहु-सांस्कृतिक देश की वास्तविकता को मान्यता नहीं देता है। यह मानव अधिकारों या लोकतांत्रिक अधिकारों की गारंटी नहीं देता है, राष्ट्रीय अधिकारों की रक्षा नहीं करता है। यह हमारी भूमि और श्रम की सबतरफा लूट को बरकरार रखने तथा बढ़ाने की इजाज़त देता है। अतः एक संविधान सभा गठित करने की जरूरत है, जो हिन्दोस्तान के लिये एक नया संविधान लिखे, जिसमें लोगों के लिये मूल अधिकार होंगे, लोगों की सुख और समृद्धि की सुनिश्चिति होगी तथा देश के सभी मामलों में लोगों की अहम भूमिका होगी।
साथ ही, पहली तीन मांगों में कही गई लोक-केन्द्रित राजनीतिक प्रक्रिया स्थापित करने के लिये एक नये संविधान की जरूरत है।
लोक राज संगठन अपने सदस्यों व भ्रात्रीय संगठनों को आह्वान देता है कि इस साल लोगों के अजेंडे को आगे बढ़ायें। हमें अधिकारों की रक्षा में हर जगह लोगों की समितियां बनाने व मज़बूत करने की जरूरत है। हमारे सामने चुनौती है कि लोगों के हाथों में सत्ता लाने के लिये एक नयी राजनीतिक व्यवस्था व प्रक्रिया लाने के संघर्ष को आगे बढ़ायें।
देश की समस्याओं का एक इलाज! लोक राज, लोक राज!