प्रिय मित्रों,
लोक राज संगठन की तरफ से मैं आप सभी का अभिवादन करता हूँ. “लोकतंत्र तथा सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून” पर आयोजित इस महत्वपूर्ण चर्चा में भाग लेने का अवसर प्रदान करने के लिये मैं आयोजकों, पीपल्स डैमोक्रैटिक मूवमेंट, का आभार व्यक्त करता हूँ.
पहले भी अनेक अवसरों पर AFSPA और लोकतांत्रिक अधिकारों के इसी मुद्दे पर सेमीनारों और जन रैलियों में भाग लेने के लिये मणिपुर और पूर्वोत्तर के अन्य स्थानों की यात्रा की अनेक सुखद स्मृतियाँ मैंने संजो रखी हैं. मैं 18 वर्ष पूर्व 8-9 दिसम्बर, 1994 को इम्फाल में आयोजित एक सेमीनार का हिस्सा था. इसका आयोजन मानवाधिकार समिति (COHR), जिससे आप सभी निश्चित ही परिचित होंगे, द्वारा किया गया था. डाक्टर एल परदेसी, जो आज की गोष्ठी के अध्यक्ष हैं, उसमें भी अध्यक्षता कर रहे थे. गोष्ठी में शहर के सभी महत्वपूर्ण बुद्धिजीवियों -– वकीलों, गुवाहाटी तथा मणिपुर विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों, डाक्टरों, पत्रकारों तथा पेशेवर लोगों – ने शिरकत की थी. अनेक वक्ताओं ने मानवाधिकारों के विभिन्न पक्षों पर पत्र प्रस्तुत किये. हम सभी ने मणिपुर पर सैन्य अधिकार की खुल कर भर्त्स्ना की और ज़ोर देकर कहा कि मणिपुर के लोगों को आत्म-निर्धारण और शांतिपूर्ण जीवन जीने का अधिकार है.
इस गोष्ठी में भारतीय कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी के सचिव लाल सिंह ने ध्यान दिलाया था कि मणिपुर और भारत के लोग आतंकवादी नहीं हैं. वास्तविक आतंकवादी तो संसद में हैं जिनका नेतृत्व पी वी नरसिम्हाराव, जो उस समय कांग्रेस सरकार के प्रधानमंत्री थे, कर रहे हैं. मानवाधिकारों के उत्कृष्ट योद्धा स्वर्गीय श्री नाऊरेम संजाउबा, जो उस समय गुवाहाटी विश्वविद्यालय में डीन थे, ने मणिपुर के लोगों के संघर्षपूर्ण इतिहास और उनकी एकता को तोड़ने के केंद्र सरकार के प्रयासों के बारे में अत्यन्त भावप्रवण व्याख्यान दिया. न्यायमूर्ति अजीत सिंह बेंस, पंजाब उच्च न्यायालय के भूतपूर्व न्यायाधीश और लोक राज संगठन के मानद अध्यक्ष, ने मणिपुर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के विषय में अत्यन्त महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये. अगले दिन, 10 दिसम्बर – अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस – को एक विशाल जन रैली का आयोजन किया गया जिसमें 10 हज़ार लोगों ने शिरकत की. यह रैली इम्फाल के मुख्य मार्गों से होकर गुज़री. हर तरफ नारे गूँज रहे थि – इस क्रूर कानून को निरस्त करो”, “सैनिक और अर्ध सैनिक बलों को फौरन वापिस बुलाओ”.
इस गोष्ठी और जन रैली का उल्लेख मैं इतने विस्तार में इसलिये कर रहा हूँ क्योंकि इसने मुझ पर गहरा प्रभाव छोड़ा था. यह मेरी पहली इम्फाल यात्रा थी और मणिपुर के लोगों, उनकी समृद्ध विरासत, इतिहास और संस्कृति के साथ मेरा पहला सीधा सम्पर्क था. उन दिनों पूर्वोत्तर में आंदोलन वास्तव में तेज़ी पकड़ रहा था.
इन 18 वर्षों में बहुत कुछ परिवर्तित हो चुका है. किन्तु मुख्यमुद्दा यह है कि AFSPA अभी भी बरकरार है. निर्दयतापूर्वक लोगों का नरसंहार अभी भी जारी है. इस क्षेत्र में अभी भी सेना का कानून चलता है.
केन्द्र और राज्य की कांग्रेस सरकारें AFSPA को वापिस नहीं लेना चाहतीं यद्यपि मणिपुर और पूर्वोत्तर के अधिकांश लोग इसके विरुद्ध हैं और विभिन्न गोष्ठियों, जन रैलियों तथा विरोध प्रदर्शनों और अन्य प्रकार से अपनी नाराज़गी का इज़हार करके इसका विरोध करते रहे हैं. इरोम शर्मिला कितने ही वर्षों से उपवास पर हैं. जब असम राइफल्स द्वारा अत्यन्त निर्दयतापूर्वक मनोरमा थांगजम की पिटाई और हत्या की गई तो इसकी तीखी आलोचना हुई थी और इसके विरोध में हज़ारों लोग सड़कों पर उतर आये थे.
AFSPA को निरस्त करने के लिये एक राष्ट्रीय अभियान समिति ने, जिसमें लोकराज संगठन के कार्यकर्ता तथा अन्य व्यक्ति शामिल थे, दिसम्बर 2004 में इम्फाल का दौरा किया. इस दल ने अपुनबालूप, इरोम शर्मिला और थांगजम मनोरमा के परिवार से मुलाकात की और सैन्य बलों द्वारा हाल में की गई दो हत्याओं के संबंध में जाँच पड़ताल की. दौरे के अन्त में दल ने निष्कर्ष निकाला कि इस कृत्य को मानवतावादी करार देना संभव नहीं है. इसने इस कानून को तुरन्त निरस्त करने और देश भर में आंदोलन को और तेज़ करने का आह्वान किया.
यह वह समय था जब जीवन रेड्डी आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी थी और तीव्र विरोध के चलते AFSPA को निरस्त करने की संस्तुति की थी. किन्तु मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने कोई भी कदम उठाने से इंकार कर दिया. कहा जाता है कि वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी, जो तत्कालीन रक्षा मंत्री थे, ने यह कहते हुए इस कानून को निरस्त किये जाने का विरोध किया था कि ऐसे में “अशांत क्षेत्रों” में “सैन्य बलों के लिये कार्य करना संभव नहीं होगा”!
और फिर भी राज्य सरकार इस कानून को पूर्ण रूप से निरस्त करने के स्थान पर इसके प्रावधानों की समुचित समीक्षा करने की बात कह रही है.
राज्य विधान सभा चुनावों के समय कांग्रेस ने लोगों से वादा किया था कि यदि उसे सत्ता प्राप्त हुई तो AFSPA को हटा लिया जायेगा. किन्तु शासक वर्ग के सभी दलों के समान कांग्रेस चुनावों के पूर्व मीठा मीठा बोलती है और एक बार चुन लिये जाने के बाद अपने सभी चुनावी वायदों से मुकर जाती है. विशाल जनविरोध के चलते 2004 में सरकार ने इम्फाल से AFSPA हटा लिया. किन्तु अब खुदगर्ज तत्वों द्वारा बम धमाके किये जा रहे हैं और इबोबी सिंह ने इम्फाल में AFSPA पुनः लागू करने की धमकी दी है.
मणिपुर में AFSPA लगाये हुए 31 वर्ष हो गये हैं. शासक वर्ग अब तक इस क्रूर कानून को जारी रखने में सफल रहा है क्योंकि जब भी लोग इसके विरोध में उठ खड़े हुए, शासक दल उन्हें विभाजित करके परास्त करने में सफल रहा. क्षेत्र के विभिन्न जनसमूहों के बीच शंका और घृणा उत्पन्न करने के लिये केंद्र और राज् सरकारों ने विभिन्न आतंकवादी समूहों को प्रोत्साहित किया. हाल में ही हमने असम में देखा कि शासक तंत्र ने किस प्रकार से बंगलादेश के प्रवासियों के मुद्दे का प्रयोग किया और क्षेत्र के लोगों तथा मुसलमानों दोनों के बीच भय का प्रसार किया. लोगों को विभाजित करने और अपनी सत्ता बनाये रखने के लिये साम्प्रदायिक और लक्षित हिंसा कराना सत्ताधारी वर्गों का पसंदीदा हथियार है.
मुझे याद है डाक्टर संजाउबा कहा करते थे कि नागा, कूकी और मीटी एक ही माँ की सन्तानें हैं. जब एक नागा किसी कूकी का खून बहाता है तो चोट मीती के हृदय को लगती है और जब एक कूकी किसी नागा का खून बहाता है तो मीती चुपचाप आँसू बहाता है. 1949 में मणिपुर पर अधिकार करने के साथ ही भारत सरकार ने यहाँ के लोगों के बीच ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की शैली में विभाजन भी उत्पन्न कर दिये जिससे वह उनके राष्ट्रीय स्वाधीनता के संघर्ष को प्रभावी ढंग से कुचल सके. इस स्थिति को परिवर्तित करना आवश्यक है.
प्रिय मित्रों,
अपने संघर्षों में आप अकेले नहीं हैं. पूर्वोत्तर के लोगों के अलावा कश्मीर की जनता भी AFSPA को निरस्त किये जाने के लिये लड़ रही है. इस क्रूर कानून के अतिरिक्त अत्यन्त कठोरतापूर्वक लोगों के संघर्षों को कुचलने और उन्हें उनके मूलभूत मानवाधिकारों से वंचित करने के लिये केंद्र सरकार और विभिन्न राज्य सरकारें विभिन्न दमनकारी कानूनों का प्रयोग कर रही हैं. महाराष्ट्र सरकार आवश्यक सेवाओं में संलग्न श्रमिकों को अपने अधिकारों के लिये वैधतापूर्ण संघर्ष करने के लिये हड़ताल पर जाने से रोकने के लिये MESMA का प्रयोग करती रही है. अशांत क्षेत्र अधिनियम, राजद्रोह अधिनियम, छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम (CSPSA), गैरकानूनी गतिविधि (निरोध) अधिनियम इत्यादि जैसे अन्य कानूनों का प्रयोग नियमित रूप से उन लोगों को डराने के लिये किया जाता है जो अपना विरोध प्रदर्शित करते हैं.
यह किस प्रकार का लोकतंत्र है जब लोगों को देखते ही गोली मारी जा सकती है या अपने विचार व्यक्त करने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है. मणिपुर में हाल में सम्पन्न चुनाव एक तमाशा थे, न्याय का उपहास थे. मात्र सैनिक शासन के तहत चुनाव करवा के सरकार यह दावा तरना चाहती है कि उसने यहाँ लोगतंत्र बहाल कर दिया है. जनसाधारण की सुरक्षा और समृद्धि सुनिश्चित करना शासक का दायित्व है, जिसे राजधर्म कहते हैं. जब ऐसा न हो तो लोगों को अपने विवेकानुसार निर्णय का अधिकार है. उन्हें यह माँग करने का अधिकार है कि उनके विचारों का सम्मान किया जाये, उनकी आकांक्षाओं को पूरा किया जाये. मणिपुर के लोग स्वेच्छा से भारतीय संघ का हिस्सा तभी बनेंगे जब शांति, सुरक्षा, सम्मान और कल्याण की उनकी आकांक्षायें पूर्ण हों. भारत सरकार ने पूर्वोत्तर के लोगों से दूसरे दर्ज़े के नागरिकों के समान व्यवहार किया है, ऐसे लोगों के समान जिनके अधिकारों को कुचला जा सकता है, जिनके क्षेत्र को दशकों तक नज़रअंदाज़ किया जा सकता है, जिन्हें यह ऐहसास कराया जा सकता है कि वे भारत के किसी अन्य भाग के नहीं हैं. फिर यदि मणिपुर तथा पूर्वोत्तर के अन्य लोग यह माँग करते हैं कि भारत सरकार अपनी भेदभाव की नीति को बदले और क्षेत्र के लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिये कदम उठाये तो इसमें ग़लत क्या है?
हमें इस महत्वपूर्ण तथ्य का एहसास होना आवश्यक है कि ये दमनकारी कानून किसी विशिष्ट सरकार अथवा व्यक्ति की रचना नहीं हैं. ये उस उपनिवेशवादी विरासत का अंग हैं जो अब तक हमारे सिर पर तलवार की तरह लटक रही है. बहुत से लोगों को आश्चर्य होगा यदि मैं कहूँ कि इन दमनकारी कानूनों में निहित ताकत का प्रवाह हमारे संविधान से होता है. ऐसा प्रतीत हो सकता है कि क्योंकि हमारे संविधान की प्रस्तावना “हम जनसाधारण …” से आरम्भ होती है तो इसे जनसाधारण का पूर्ण विश्वास प्राप्त है किन्तु यह सत्य नहीं है. हमारे संविधान का निर्माण लोगों द्वारा चुनी गई संविधान सभा द्वारा नहीं किया गया था और इसे स्वीकार करने से पूर्व किसी विस्तृत चर्चा द्वारा इस पर लोगों की सहमति भी नहीं ली गई थी. संविधान ने उपनिवेशवादियों द्वारा निर्मित भारत सरकार अधिनियम की सभी प्रमुख विशेषताओं को बरकरार रखा. भारतीय संघ के “संघीय ढाँचे” के वास्तविक अर्थ पर संविधान सभा द्वारा कई दिनों तक विचार किया गया. अन्ततः उन्होंने निर्णय लिया कि भारत में विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं का कोई अस्तित्व नहीं है और इसलिये आत्म निर्धारण का कोई प्रश्न ही नहीं है.
संविधान की धारा 19 कहती है कि बोलने, अभिव्यक्ति और एकत्र होने के अधिकार मूलभूत अधिकार हैं. किन्तु इसी क्रम में संविधान इस तर्क के साथ इन अधिकारों को वापिस ले लेता है कि जहाँ आवश्यक हो वहाँ नागरिकों को इन अधिकारों से वंचित करने के लिये “समुचित प्रतिबंध” लगाये जा सकते हैं. संविधान के इसी संशोधन का प्रयोग शासक, लोगों को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित करने में करते हैं जब भी वे उनको राजनैतिक सत्ता पर अपने एकाधिकार के लिये खतरा मानते हैं.
अतः हमें गम्भीरता से अपने संविधान का अध्ययन करना होगा और यह विश्लेषण करना होगा कि लोगों को उनके मानवीय, लोकतांत्रिक और राजनैतिक अधिकार वापिस दिलाने के लिये इधर उधर कुछ संशोधन मात्र पर्याप्त होंगे अथवा उपनिवेशवाद की छाया से मुक्त एक पूर्णतः नये संविधान की रचना की आवश्यकता है जिसका निर्माण वास्तव में भारत के आम लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली एक चुनी गई संविधान सभा द्वारा किया जाये और जिसे लोगों के बीच गहन चर्चा और विचार विमर्श के बाद स्वीकार किया जाये.
जब एक संविधान में, जो देश का सर्वोच्च कानून होता है, लोगों के वैध संघर्षों का दमन करने के लिये क्रूर कानूनों के निर्माण का प्रावधान हो तो मन में यह प्रश्न आता है :
यह संविधान किस प्रकार के लोकतंत्र की अनुमति देता है? हम यह कैसे कह सकते हैं कि भारत विश्व में सबसे बड़ा लोकतंत्र है जबकि आम जनता राजनैतिक सत्ता से पूर्णतः वंचित कर दी गई है और उसके साथ मात्र एक वोटिंग पशु के समान व्यवहार किया जाता है?
2004 में, AFSPA के विरुद्ध संघर्ष अपने चरम पर था, लोक राज संगठन के तत्कालीन अध्यक्ष न्यायमूर्ति सुरेश ने उपाध्यक्ष प्रोफेसर दलीप सिंह और न्यायमूर्ति दाऊद के साथ AFSPA को निरस्त करने के लिये प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक अपील भेजी थी. अपील में उन्होंने अत्यन्त भावुकतापूर्वक दलील दी कि – “इतने लंबे समय तक सेना की उपस्थिति से लोगों की मूलभूत स्वतंत्रता का हनन होना अवश्यम्भावी है. वास्तव में मणिपुर राज्य में संविधान द्वारा सुनिश्चित स्वतंत्रता और अधिकार उपलब्ध नहीं हैं. यह जीवन की वास्तविकता है कि पूर्वोत्तर के लोग एक स्वतंत्र जीवन व्यतीत करने की स्थिति में नहीं हैं, न केवल इसलिये कि विभिन्न समूह आपस में संघर्षरत हैं अपितु सेना के कारण भी.”
तत्पश्चात वे कहते हैं :
“यह मानना ग़लत है कि एक आतंकवादी कानून द्वारा आतंकवाद को नियंत्रित किया जा सकता है. इसी प्रकार से यह मानना भी ग़लत है कि लोगों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को सेना द्वारा कुचला जा सकता है. मणिपुर की समस्या का समाधान सशस्त्र बलों के प्रयोग द्वारा नहीं किया जा सकता. इसका समाधान लोकतांत्रिक तरीकों से ही संभव है. हमारी सरकार को निर्णय करना है कि उसे भूमि चाहिये अथवा लोग. सेना केवल भूमि को संरक्षित कर सकती है लोगों को नहीं. यदि सरकार लोगों का साथ चाहती है तो उसे लोगों की आकांक्षाओं और इच्छाओं का प्रत्युत्तर देना होगा. यदि वे अधिक स्वायत्ता और स्व शासन की आकांक्षा रखते हैं तो सरकार को इसे हासिल करने के लिये मार्ग और साधन ढूँढने का प्रयास करना होगा.”
लेकिन इन तमाम वर्षों में हमने देखा है कि सरकार को लोगों को अपना बनाये रखने में कोई रुचि नहीं है. अतः यह निर्णय लोगों को करना है कि वे सरकार को बनाये रखना चाहते हैं अथवा नहीं!
अतः मुद्दा मात्र AFSPA को निरस्त करने का नहीं है, अपितु एक लोगों के संविधान के पुनर्निर्माण और जन केंद्रित लोकतंत्र की स्थापना का है. उस नींव पर दृष्टि डाले बिना हम AFSPA को समाप्त करने की इच्छा नहीं कर सकते जिनके आधार पर ऐसे कानून दण्डाभाव के साथ कार्य करते हैं. यदि AFSPA नहीं भी होगा तो UAPA अथवा MESMA अथवा अशांत क्षेत्र कानून अथवा राजद्रोह अधिनियम जैसे किसी अन्य क्रूर कानून का प्रयोग किया जायेगा.
आज हमारे देश में संसदीय प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक व्यवस्था है. इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता कार्यकारी परिषद के हाथों में, प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मंत्रीमंडल के हाथों में केंद्रित होती है. विधायिका और न्यायपालिका यह सुनिश्चित करने में कार्यकारी परिषद के यंत्र के रूप में कार्य करते हैं कि सत्ता शासक कुलीन वर्ग के हाथों में ही रहे. कार्यकारी परिषिद संसद में पूर्ण विचार विमर्श और सहमति के बिना भी कार्यकारी शासनादेशों के माध्यम से नीतियाँ और कानून पारित कर सकती है. कार्यकारी परिषद लोगों द्वारा चुनी गई विधायिका के प्रति जवाबदेह नहीं है. इसी प्रकार से कार्यपालिका के सदस्य उन लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं हैं जिन्होंने उनको चुना है. इस राजनैतिक प्रक्रिया में लोगों की भूमिका मात्र किसी न किसी राजनैतिक दल को मत देकर सत्ता तक पहुँचाने तक ही सीमित है.
लोक राज संगठन यह माँग करता रहा है कि इस राजनैतिक व्यवस्था और प्रक्रिया को आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है. पार्टियों के प्रभुत्व वाली इस राजनैतिक प्रक्रिया का स्थान लोगों के प्रभुत्व वाली एक राजनैतिक प्रक्रिया को लेना होगा. जब तक लोग राजनैतिक सत्ता से वंचित रहेंगे तब तक संविधान द्वारा निर्मित संस्थाएं – कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका – लोगों के प्रति जवाबदेह नहीं बनेंगे.
पूर्वोत्तर के लोग पहले ही अत्यन्त राजनैतिक हैं. वे संगीनों के साये में जीने और नित्य नरसंहार देखने पर विवश हैं और अपने अधिकार जताने के लिये एक संगठित शक्ति बनने का प्रयास कर रहे हैं. मेरा मानना है कि अब ऐसी व्यवस्था के निर्माण की आवश्यकता है जो हमारी राजनैतिक गतिविधि का दायरा बढ़ाये और मणिपुर तथा अन्यत्र हमारे राजनैतिक सीमांतीकरण को समाप्त करे. इस अगले कदम का एक आवश्यक अंग यह है कि हम समझें कि यह राजनैतिक व्यवस्था और प्रक्रिया किसके लिये है और इसने हमें राजनैतिक सत्ता तथा निर्णय प्रक्रिया से वंचित रखने के लिये क्या किया है. तभी हम सभी स्वीकार करेंगे कि इस राजनैतिक व्यवस्था को अस्वीकार करना आवश्यक है और इसका विकल्प सम्भव है.
यही कारण है कि लोक राज संगठन ने जन संघर्ष के स्थानीय, ग्राम, जनपद, नगर, प्रदेश और सर्व हिन्द स्तरीय अंगों – समितियाँ और परिषद – के निर्माण में अपनी समस्त ऊर्जा लगा दी है. मेरा मानना है कि लोगों के सशक्तीकरण का समर्थन करने वाली समस्त राजनैतिक शक्तियों के समक्ष तात्कालिक व्यावहारिक कार्य यही है. स्वयं मणिपुर में लोगों ने मेअरा पैबिस तथा अन्य जैसे अपने संगठनों और कार्यकर्ताओं का निर्माण किया है. मणिपुर का इतिहास नूपी लाल जैसे दमन विरोधी संघर्षों से भरा हुआ है. और मणिपुर की महिलायें अपने अधिकारों की अभिव्यक्ति में अत्यन्त सक्रिय रही हैं. जन प्रशासन के मणिपुर के अपने पारम्परिक प्रकार रहे हैं. ऐसे जनसमूहों को सभी प्रकार के संघर्षों और गतिविधियों में भाग लेना होगा जो उनके मुद्दों को राजनैतिक जीवन के केंद्र में लाने में मदद करेगा.
मैं यहाँ पर पुनः ज़ोर दे कर कहना चाहूँगा कि समस्त काले कानूनों को सदा के लिये समाप्त करने के लिये, पूर्वोत्तर के लोगों में एकता स्थापित करने के लिये, एक ऐसी सरकार और राजनैतिक प्रक्रिया की स्थापना के लिये जो हमारे लिये कार्य करें, हमें पूर्वोत्तर के सभी लोगों को संगठित करना होगा. न तो हम कुछ सशस्त्र समूहों की गतिविधियों पर निर्भर रह कर लोगों का सशक्तीकरण कर सकते हैं और न ही संसद और राज्य विधान सभाओं में सत्ताधारी दलों और विपक्ष की अर्थहीन चर्चाओं पर निर्भर रह कर.
मणिपुर के लोग राजनैतिक दलों और उनके दोगलेपन से ऊब चुके हैं. वे चुनावों से पहले सभी प्रकार के वायदे करते हैं और फिर चुनावों के बाद बहाने बना कर उनसे पलट जाते हैं, जैसा चुनावों के बाद इबोबी सिंह की सरकार ने किया है. ऐसा न हुआ होता यदि प्रतिनिधियों को चयन करने और चुनने का अधिकार लोगों के पास होता, राजनैतिक दलों के पास नहीं. हमें इस सिद्धांत के लिये संघर्ष करना होगा कि जब तक लोगों के पास प्रत्याशियों के चयन में निर्णयात्मक दखल का अधिकार न हो, तब तक कोई चुनाव नहीं होंगे. लोक राज संगठन ने चुनाव क्षेत्रों में खुली सार्वजनिक सभाओं में प्रत्याशियों को चुनने के तरीके का परीक्षण गिया है और इसे अपनाया है जहाँ प्रत्येक नामांकन की जाँच की जाती है, इसे स्वीकृत अथवा अस्वीकृत किया जाता है.
लोक राज संगठन ने निरन्तर एक ऐसी राजनैतिक प्रक्रिया का समर्थन किया है जहाँ लोगों के पास अपने प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने का अधिकार हो यदि वे उनके हितों की पूर्ति न करें. हमने सदैव यह माँग की है कि अपने हितों की रक्षा के लिये लोगों के पास कानून बनाने में पहल लेने का अधिकार होना चाहिये और ऐसा कानून बन जाने के बाद लोगों को इसके उचित कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने में सक्षम करने के लिये ढाँचे का निर्माण किया जाना चाहिये. हमने निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्सीमांकन इस प्रकार से करने पर तर्क प्रस्तुत किये हैं जिससे लोग अपने प्रतिनिधियों को भली भाँति जान सकें और उनकी जवाबदेही सुनिश्चित कर सकें. हमने इस विषय पर भी मज़बूती से तर्क प्रस्तुत किये हैं कि राजनैतिक प्रक्रिया के लिये धन राज्य को मुहैया करवाना चाहिये, राजनैतिक दलों को नहीं.
इसी के साथ हमारा दृढ़ विश्वास है कि समाज में राजनैतिक दलों की एक महत्वपूर्ण भूमिका है. राजनैतिक सत्ता को अपने हाथों में निहित करने के लिये कार्य करने के बजाय, उन्हें सत्ता को लोगों के हाथों में स्थानांतरित करने के लिये कार्य करना चाहिये. राजनैतिक सत्ता और लोगों के बीच द्वारपाल की तरह कार्य करने के स्थान पर उन्हें लोगों के सशक्तीकरण के लिये सहायकों की तरह कार्य करना चाहिये. हमें प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जन समितियों के चुनाव के लिये ज़मीन तैयार करनी चाहिये. इन समितियों को चुनावों के लिये प्रत्याशियों के चयन और चुनाव की, समुचित कार्य न करने पर चुने गये प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने की और नये कानून बनाने तथा वर्तमान कानूनों को निरस्त करने अथवा उनकी समीक्षा के प्रस्तावों की पहल करने की ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिये. अतः ये समितियाँ केवल चुनावों के समय ही कार्य नहीं करेंगी अपितु चुनावों के पहले और बाद में भी सक्रिय रहेंगी.
हमारे संगठन का विश्वास है कि वर्तमान संविधान, इसकी संस्थाओं और निर्वाचन कानूनों की सीमाओं का अध्ययन करने का यह उचित समय है. यह हमें गैरपक्षीय चुनावों के माध्यम से एक संविधान सभा की स्थापना के लिये मानचित्र विकसित करने में सक्षम बनायेगा, जिसे हिन्दोस्तान की जनता के समक्ष चर्चा और स्वीकृति के लिये एक संविधान का प्रारूप तैयार करने का जनादेश प्राप्त होगा. प्रत्येक निर्वाचक क्षेत्र के लोगों का इस विषय में निर्णायक दखल होगी कि उनके क्षेत्र में राजनैतिक प्रक्रिया किस प्रकार कार्य करेगी. उदाहरण के लिये, मणिपुर के लोग निर्णय करेंगे कि मणिपुर में राजनैतिक सत्ता के संविधान का अन्तिम रूप क्या होगा और साथ ही वे अन्य निर्वाचन क्षेत्रों के साथ मिल कर नये स्वैच्छिक हिन्दोस्तानी संघ के संविधान के बारे में निर्णय करेंगे.
परिवर्तन समय की माँग है. भ्रष्टाचार, मूल्य वृद्धि, कुपोषण, लोगों की सहमति के बिना परमाणु संयंत्रों की स्थापना, एकाधिकारों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों द्वारा सरकार की मदद से भूमि हड़पना, भाईचारे के साथ रहने वाले लोगों के बीच नदी जल विवादों को उकसाने, राज्य द्वारा प्रायोजित साम्प्रदायिक और वर्गीय हिंसा और सरकारी आतंकवाद के विरुद्ध विशाल पैमाने पर संघर्षों ने लोकतंत्र की वर्तमान प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक व्यवस्था और यथास्थिति चाहने वाली शक्तियों के आर्थिक दिशाविन्यास में मूलभूत कमियाँ उजागर कर दी हैं. ये हमारे लोगों के हाथों में सम्प्रभुता निहित करने के प्रश्न को केंद्र में ले आये हैं.
मुझे आशा है कि हमारी आज की चर्चा लोगों को सम्प्रभुता प्रदान करने के महान कार्य में योगदान अवश्य करेगी.
यह अवसर प्रदान करने के लिये मैं आप सभी का धन्यवाद करता हूँ.