जुलाई 2012 में चुने जाने वाले, हिन्दोस्तान के राष्ट्रपति के पद के लिये उपयुक्त उम्मीदवार का चयन हाल के हफ्तों में हमारे देश के शासकों के हलकों में एक मुख्य चिंता का विषय बन गया है।
यह विषय आज बहुत महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि वर्तमान राजनीतिक स्थिति बहुत नाजुक है और खास तौर पर राजनीतिक अस्थायीपन, संकट व संभावित ”आपात्कालीन” परिस्थितियों में राष्ट्रपति की भूमिका व ताकतें बहुत महत्वपूर्ण होती हैं।
वर्तमान परिस्थिति
राष्ट्रपति चुनाव ऐसे समय पर हो रहा है जब वर्तमान व्यवस्था में सबतरफा संकट है। बड़े पूंजीपति अपने सुधार कार्यक्रम को तेज़ी से आगे बढ़ाना चाहते हैं, परन्तु लोगों के विस्तृत और तीव्र प्रतिरोध की वजह से तथा शासक गठबंधन के अन्दर विरोध की वजह से यह सुधार कार्यक्रम स्थगित हो गया है।
बढ़ती महंगाई, मजदूरों के अधिकारों के हनन और बढ़ते शोषण के खिलाफ़ मजदूरों का गुस्सा तेज़ होता जा रहा है। निजीकरण और उदारीकरण कार्यक्रम के खिलाफ़ मजदूरों का एकजुट विरोध मजबूत हो रहा है। अलग-अलग क्षेत्रों में मजदूर पेंशन के प्रस्तावित नये कानून का विरोध कर रहे हैं, जिस कानून का मकसद है पूंजीपतियों के हित के लिये मजदूर वर्ग की बचत के पैसे को लूटना। बैंक कर्मचारी यह सवाल कर रहे हैं कि हमारे देश में बैंकों को सिर्फ अधिकतम मुनाफा कमाने और ”विश्वस्तरीय स्पर्धा” के इरादे से ही क्यों चलाना चाहिये।
किसान और आदिवासी लोग बड़ी पूंजीवादी कंपनियों द्वारा उनकी जमीन को हड़पने की कोशिशों के खिलाफ़ और इस भूमि अधिग्रहण को मदद देने के लिये प्रस्तावित नये भूमि अधिग्रहण कानून के खिलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं।
बहु-ब्रांड खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी पूंजीनिवेश की इजाज़त का मजदूर, किसान और छोटे व्यापारी जमकर विरोध कर रहे हैं।
जी-20 बैठक से वापस आकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने यह इशारा किया है कि ”नीति गतिहीनता” को समाप्त करने के लिये आने वाले समय में कठोर कदम लेने पड़ेंगे। आर्थिक मंदी के साथ-साथ, हिन्दोस्तान के भुगतान के संतुलन तथा राजकोषीय स्थिति के बिगड़ने की पहले से ही काफी बात चल रही है। ”मितव्ययिता के कदमों” की मांग की जा रही है, जिसका यह मतलब है कि बड़ी-बड़ी कंपनियों के मुनाफों को बचाने के लिये मेहनतकश जनसमुदाय के जीवन स्तर पर और हमले किये जायेंगे।
पूंजीवादी-साम्राज्यवादी कार्यक्रम के खिलाफ़ जनता के विरोध की वजह से अन्तर-पूंजीवादी अन्तर्विरोध और तेज़ हो रहे हैं। बड़े इजारेदार घरानों की आपसी दुश्मनी की वजह से एक के बाद दूसरे घोटाले का खुलासा हो रहा है। बड़े इजारेदार पूंजीपतियों और विभिन्न प्रान्तीय पूंजीवादी घरानों के बीच झगड़े तेज़ हो रहे हैं। प्रान्तीय पूंजीवादी घराने बड़ी-बड़ी इजारेदार कंपनियों की हुक्मशाही को चुनौती दे रहे हैं और अपने हिस्से का दावा कर रहे हैं।
विभिन्न राज्य सरकारें अलग-अलग पहलुओं पर केन्द्र सरकार के हुक्म के थोपे जाने का विरोध कर रही हैं।
इस समय मौजूदे लोकतंत्र की पूरी व्यवस्था और उसकी राजनीतिक प्रक्रिया बहुत बदनाम हो गयी है। इस संदर्भ में, हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी लगातार यह बताती आयी है कि इसमें मूल समस्या यह है कि संपूर्ण ताकत या संप्रभुता कुछ मुट्ठीभर लोगों के गिरोह के हाथ में है। संविधान इसे जनता द्वारा शासन बताता है पर वास्तव में संविधान मंत्रीमंडल द्वारा शासन को वैधता देता है।
अधिक से अधिक मजदूर, किसान और प्रगतिशील बुध्दिजीवी यह समझ रहे हैं कि इन मुट्ठीभर शोषकों के खुदगर्ज शासन को खत्म करने तथा अपने हाथों में संप्रभुता लेने की जरूरत है।
सब तरफा संकट और अपने बहुचर्चित लोकतंत्र के बदनाम हो जाने की वजह से, बड़े पूंजीपति 2012-17 में राष्ट्रपति पद के लिये एक ऐसा परखा हुआ नेता चुनना चाहते हैं जो मौजूदे व्यवस्था में कुछ विश्वसनीयता वापस ला सकेगा। बड़े औद्योगिक घराने एक ऐसा राष्ट्रपति चाहते हैं जो उनके साम्राज्यवादी मंसूबों को पूरा करने में मदद देगा, पूंजीपति वर्ग के अंदरूनी झगड़ों को हल करने में मदद करेगा और जन विरोध को कुचलने के लिये फासीवादी कदमों को जायज़ ठहरा सकेगा।
राष्ट्रपति की ताकतें
हिन्दोस्तान का संविधान राष्ट्रपति के हाथों में कार्यकारी, वैधानिक, न्यायिक, वैत्तिाक तथा आपात्कालीन ताकतों समेत बहुत व्यापक ताकत सौंपता है। इन ताकतों का इस्तेमाल करने के लिये सिर्फ एक शर्त है, कि राष्ट्रपति प्रधान मंत्री की अगुवाई में मंत्रीमंडल की सलाह का पालन करने को बाध्य है। राष्ट्रपति किसी प्रस्ताव को पुन: विचार के लिये मंत्रीमंडल को एक बार वापस भेज सकता है। अगर वही प्रस्ताव फिर पेश किया जाता है तो राष्ट्रपति उसे मानने को बाध्य है।
इससे हम इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकते कि राष्ट्रपति सिर्फ मुहर लगाने वाला है। अगर किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू करने या राष्ट्रीय या वित्तीय आपात्काल घोषित करने, जैसे किसी प्रमुख मंत्रीमंडलीय प्रस्ताव को राष्ट्रपति वापस कर देता है, तो राजनीतिक संकट काफी गंभीर हो सकता है।
कभी-कभी राष्ट्रपति निर्णायक मुद्दों पर फैसला लेने की अपनी ताकत का इस्तेमाल करता है। जब संसदीय चुनाव में स्पष्ट बहुमत किसी भी दल को नहीं मिलता है और अलग-अलग दल दावे करते हैं तो राष्ट्रपति यह फैसला लेता है कि किस पार्टी को अपना बहुमत साबित करने के लिये पहले बुलाया जायेगा। अगर किसी कानून पर लोक सभा और राज्य सभा के बीच में मतभेद होता है तो राष्ट्रपति के पास उस मतभेद को हल करने के लिये संसद का संयुक्त सत्र बुलाने की ताकत है।
निष्कर्ष
वर्तमान स्थिति और आने वाले तूफानी समय को देखते हुये, बड़े पूंजीपतियों ने राष्ट्रपति पद के लिये अपने पसंदीदा उम्मीदवार बतौर प्रणब मुखर्जी को चुना है। यही वजह है कि कांग्रेस पार्टी की कुछ प्राथमिक हिचकिचाहट के बावजूद और प्रांतीय पार्टियों द्वारा तरह-तरह के अन्य नामों के प्रस्तावों के बावजूद, राष्ट्रपति पद के दौड़ में मुखर्जी सबसे पसंद उम्मीदवार निकला है। यह सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की कोशिशों की वजह से नहीं हुआ है, जैसा कि टी.वी. चैनलों पर बताया जा रहा है। यह मुख्यत: पर्दे के पीछे बड़े पूंजीपतियों के हाथ का कारनामा है।
मजदूर वर्ग, किसानों और दूसरे मेहनतकशों के लिये मुखर्जी का चयन कोई खुशी की बात नहीं है। मुखर्जी पढ़ा-लिखा और बुध्दिमान हो सकता है, पर उसका ज्ञान और बुध्दि मजदूरों और किसानों के हित के लिये नहीं है। उसने हमेशा ही देश के इजारेदार पूंजीवादी घरानों के हितों की सेवा की है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी बड़े पूंजीपतियों के इस आह्वान का सकारात्मक जवाब देकर और अपने मित्र दलों से मुखर्जी के लिये समर्थन मांगकर, इन परिस्थितियों में एक खतरनाक भूमिका निभा रही है।
कम्युनिस्टों को पूंजीवादी शासन के अस्थायीपन और संकट का फायदा उठाकर उसे मजदूर वर्ग के हित में इस्तेमाल करना चाहिये।
हिन्दोस्तान की कम्युनिस्ट ग़दर पार्टी वर्तमान संकट का फायदा उठाकर, मौजूदे पूंजीवादी व्यवस्था की जगह पर, एक ज्यादा उन्नत राजनीतिक व्यवस्था और प्रक्रिया स्थापित करने के उद्देश्य और कार्यक्रम के इर्द-गिर्द मजदूर वर्ग व मेहनतकशों की एकता बनाने की कोशिश कर रही है। वह उन्नत व्यवस्था श्रमजीवी लोकतंत्र है, जिसमें सर्वोच्च ताकत मजदूर वर्ग के हाथ में होगी, मजदूर अपने निर्वाचित उम्मीदवारों पर नियंत्रण करेगा और ये उम्मीदवार कार्यकारिणी पर नियंत्रण करेंगे। प्रत्येक राष्ट्र, राष्ट्रीयता और लोगों के आत्म-निर्धारण के अधिकार को मान्यता देने के आधार पर हिन्दोस्तानी संघ और उसके सभी भागीदारों के बीच संबंध की नई परिभाषा दी जायेगी।
माकपा जो कर रही है वह, जो एक कम्युनिस्ट पार्टी को करना चाहिये, उसके बिल्कुल विपरीत है। जब शासक पूंजीपति संकट में हैं तो माकपा उनकी मदद करने के लिये दौड़ रही है। वह पूंजीवादी-साम्राज्यवादी कार्यक्रम को अपनाने तथा साथ ही साथ, मजदूरों व किसानों के हितों की रक्षा का दावा करने का विश्वासघातक रास्ता अपना रही है।
पूंजीपतियों को अपना शासन स्थायी करने में मदद करना, यह कम्युनिस्टों का काम नहीं है। कम्युनिस्टों का काम है इस संसदीय व्यवस्था में मंत्रीमंडल और राष्ट्रपति के हाथों में से सर्वोच्च ताकत को छीन कर अपने हाथों में उसे लेना, ताकि पूंजीवाद को दफनाया जा सके और समाजवाद का निर्माण किया जा सके।