15 अगस्त, 2011
नई दिल्ली
श्री जयराम रमेश
ग्रामीण विकास मंत्रालय

महोदय,
यह पत्र, ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा विधेयक के मसौदे पर टिप्पणियों के आमंत्रण की सूचना के संदर्भ में लिखा गया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि इस विधेयक का मसौदा, शहरीकरण, ढांचागत विकास व औद्योगीकरण, आदि के नाम पर, निगमों व राज्य सत्ता द्वारा भूमि हथियाने को कानूनी जामा पहनाने के लिये बनाया गया है। साथ ही एक गलतफहमी फैलाने की कोशिश है कि यह विधेयक रोजी-रोटी खोने वाले लोगों के हितों के बारे में चिंताओं को गंभीरता से संबोधित करता है। इसमें भूमि के अलग-अलग उपयोगों के बीच तालमेल लाने और जंगल जमीन, खेत जमीन, सामुदायिक मालिकी की जमीन, शहरी ढांचागत व औद्योगिक जमीन, आदि की अलग-अलग तरह की भूमियों में समरूपता रखने के प्रश्न को संबोधित करने की रत्तीभर भी कोशिश नहीं की गयी है।

“भूमि का एक आदर्श बाजार” स्थापित करने का तर्क दे कर, यह विधेयक का मसौदा, ताकत के मौजूदा असंतुलन को पाटने की जगह, वास्तव में, और भी एकतरफा करेगा। खेती को एक व्यवहार्य पेशा बनाने के लिये सरकार की दखल को बढ़ाने की तरफ कदम उठाने की जगह, यह विधेयक असलियत में, दीवालियापन की कगार पर खड़े किसानों को खेती के व्यवसाय को छोड़ने और उनको मुनाफे के भूखे निगमों की दया पर निर्भर होने पर मज़बूर करेगा। यह कैसी विडंबना है कि ग्रामीण विकास मंत्रालय अलग-अलग क्षेत्रों के निगमों की जेबें भरकर ग्रामीण क्षेत्र की रोजी-रोटी के साधनों के विनाश का बीड़ा उठा रहा है।

विधेयक का मसौदा निजी निगमों को किसानों, आदिवासियों और मछुवारा समुदायों से जमीन लेने की अनुमति देता है। अगर निजी निगम को 100 एकड़ से कम की जमीन चाहिये तो यह विधेयक के अंतर्गत नहीं आता है। 100 एकड़ से ज्यादा जमीन के लिये, निजी निगम को सिर्फ विधेयक के पुनर्वास व पुनःस्थापन के अंश को लागू करना होगा। इसका मतलब है कि सरकार ने निगमों को कोई भी जमीन और किसी भी तरीके से लेने की छूट दे दी है। अगर निगमों को लोगों के प्रतिरोध से काफी समस्या आती है, तब सरकार निगमों की सेवा में मध्यस्तता के लिये उतरेगी। इस विधेयक के मसौदे का इतना मानवद्वेशी स्वभाव है।

इसके पहले का भूमि अधिग्रहण कानून अंग्रेज उपनिवेशवादियों की ऐमिनेंट डोमेन की ताकत के सिद्धांत का उदाहरण है जिस ताकत का इस्तेमाल आज हिन्दोस्तानी राज्य करता है – सार्वजनिक कार्यों के लिये किसी की भी निजी सम्पत्ति छीनने की ताकत। इसकी सफाई में ऐसी उक्तियां बताई जाती हैं जैसे “सार्वजनिक जरूरत निजी जरूरत से बड़ी होती है”। ऐसे कानून से लैस हो कर, राज्य सत्ता तेजी से और कम से कम मुआवजा दे कर, किसी भी इस्तेमाल के लिये जमीन ले सकती है। इस कानून से लगता है जैसे कि अधिग्रहण समाज की दृष्टि में “न्यायसंगत” है। इसके तहत राज्य को भूमि अधिग्रहण का निरंकुश अधिकार है।

वर्तमान मसौदा उसी परंपरा को जारी रखता है। “सार्वजनिक कार्यों” की परिभाषा में सभी कुछ शामिल है। विधेयक में राज्य की दखलंदाजी को तीन श्रेणियों में डाला गया है – राज्य के कार्य के लिये राज्य द्वारा भूमि अर्जन, अंत में निजी पक्षों को देने के लिये राज्य द्वारा भूमि अर्जन, और तुरंत निजी पक्षों को देने के लिये राज्य द्वारा भूमि अर्जन।

पहली श्रेणी में 1894 के कानून की पूरी ताकतें कायम रखी गयी हैं। इस श्रेणी में, भूमि अधिग्रहण पर लोगों की कोई सुनवाई नहीं है। इसका मतलब है कि महाराष्ट्र के जैतापुर में, या हरियाणा के गोरखपुर में परमाणु ऊर्जा परियोजना के लिये भूमि अधिग्रहण के खिलाफ़ संघर्ष कर रहे लोगों के कोई अधिकार नहीं हैं। उनके मत का कोई महत्व नहीं है। इसी तरह, महामार्गों, हवाई अड्डों, रक्षा संबंधी परियोजनाओं, आदि के लिये अधिग्रहित भूमि से पीडि़त लोगों के कोई अधिकार नहीं हैं। प्रश्न उठता है – क्या जैतापुर और गोरखपुर के लोगों के, और देश की सीमा के समीप रहने वाले लोगों के अधिकार अपवित्र नहीं हैं? लोगों की जमीन छीन कर उन्हें रोजी-रोटी से वंचित करने का हक राज्य को किसने दिया है?

दूसरी तथा तीसरी श्रेणी के तहत, निजी पक्षों के लिये राज्य द्वारा जमीन के अर्जन के बारे में विधेयक में लिखा है कि प्रभावित आबादी के 80 प्रतिशत की सहमति होनी चाहिये। जिन्हें भी हिन्दोस्तानी ग्रामीण इलाकों की प्रक्रियाओं, राज्य यंत्रों तथा निजी निगमों के बारे में जानकारी है, वे समझते हैं कि कैसे 80 प्रतिशत सहमति का कृत्रिम इंतजाम किया जा सकता है। क्या ग्राम पंचायतों को फैसला लेने का अंतिम अधिकार होगा? क्या खेत मज़दूरों और अन्य लोगों की सहमति लेने की जरूरत नहीं है? कहा गया है कि हिमाचल व उत्तराखंड राज्यों में शुरु की गयी इतनी सारी परियोजनाओं के बारे में राज्य व्यवस्था द्वारा आयोजित जन सुनवाईयां पूरी तरह से ढ़ोंग भरी रही हैं। विधेयक ताकत में भारी असमानता की समस्या पर कुछ भी प्रकाश नहीं डालता है, जिसके जरिये सहमति बनाई जाती है। एक बार 80 प्रतिशत सहमति तैयार कर ली जाती है तब यह निगमों के लिये बाकी भूमि का बलपूर्वक अर्जन सुनिश्चित करता है।

“सार्वजनिक कार्यों” को साफ-साफ परिभाषित करना जरूरी है। इसका सबसे पहले एक मकसद प्रभावित समुदायों की सेवा होना चाहिये। समाज के आम हित की आड़ में प्रभावित समुदायों के हित की बली नहीं चढ़ाई जा सकती है।

प्राचीन काल से, जंगल की भूमि, गांवों की सांझी और बंजर भूमि का नियंत्रण हिन्दोस्तानी लोगों के हाथ में रहा है। भूमि के इस्तेमाल के पक्के नियम थे। जो भूमि खेती के लिये इस्तेमाल होती थी उसका दूसरा उपयोग पूरे समुदाय की सहमती के बगैर नहीं होता था और न ही बलप्रयोग की अनुमति थी। लोगों के कल्याण में कानून बनाये जाते थे और लागू होते थे। हालांकि राजा निजी संपत्ति का अर्जन कर सकता था, परन्तु राजा के लोगों के कल्याण के प्रति पक्के कर्तव्य होते थे जो राजा की निरंकुशता पर लगाम लगाते थे। विधेयक का मसौदा इस प्राचीन बुद्धिमतत्ता के विपरीत है।

अपने देश में विकास की प्रक्रिया से एक प्रश्न और उठता है। कुछ औद्योगिक घरानों ने अंग्रेजों के समय से और कुछ ने आजादी के बाद, शहरों में बड़ी-बड़ी जमीनें कौडि़यों के मोल प्राप्त कर ली हैं। उन्होंने अपने कारखाने बंद कर दिये हैं और उसे स्थावर संपदा (रियल स्टेट) बना कर मुनाफा बना रहे हैं। ऐसा मुंबई-ठाणे, कोलकता और दिल्ली में बड़े पैमाने पर हुआ है। सरकार भी एन.टी.सी. मिलों और रेलवे आदि की जमीन का इस्तेमाल इसी तरह कर रही है। इस प्रश्न पर विधेयक चुप क्यों है? इन जमीनों को सरकार बिना मुआवजा वापस लेकर स्कूलों, अस्पतालों और मज़दूरों के लिये आवासों के लिये, यानि कि सच में सार्वजनिक कार्यों के लिये, इस्तेमाल क्यों नहीं करती है? यह सही नहीं है कि सरकार गंभीरता से लोगों से परामर्श किये बिना विधेयक को संसद में पेश करे और पारित करे। लोक राज संगठन नहीं मानता कि एक कम समय के लिये विधेयक के मसौदे को टिप्पणियों के लिये वेबसाईट में डालना, गंभीर परामर्श है। हम विरोध प्रकट करते हुये अपने विचार भेज रहे हैं; कि “सार्वजनिक कार्यों” के नाम पर बलपूर्वक भूमि अर्जन के पूरे मुद्दे पर हिन्दोस्तान के लोगों के सभी तबकों के बीच में व्यापक विचार विमर्श होना निहायत जरूरी है।
देश भर में, राज्य की सहायता से, निगमों द्वारा भूमि हड़पने के खिलाफ़ लोगों के विशाल विरोध प्रदर्शन हुये हैं जिनमें किसान, आदिवासी लोग और मछुवारों के समुदाय शामिल रहे हैं। किसान, आदिवासी और मछुवारे लोगों में अधिकांश, अपनी भूमि और रोजी-रोटी खोने के लिये “पर्याप्त मुआवजे” की मांग नहीं कर रहे हैं। खेत मज़दूर और गांव की अर्थव्यवस्था पर निर्भर अन्य ग्रामीण जनता अपनी जीविका खोने के लिये “मुआवजा” नहीं मांग रहे हैं। जो लोगों की आवाज, दृढ़ता से मांग कर रही है, वह है, कि राज्य व्यवस्था या निगमों को, उनकी कमजोर जिन्दगी पर हमला करने का कोई अधिकार नहीं है। साथ ही वे मांग कर रहे हैं कि लोगों की सुरक्षा और खुशहाली सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी, राज्य को निभानी होगी। विधेयक के मसौदे को इस संदर्भ में देखना होगा।

लोक राज संगठन के दृष्टिकोण से, विधेयक का मसौदा किसानों और आदिवासी लोगों की मूलभूत चिंताओं का संबोधन नहीं करता। यह लोगों के अधिकारों का पूरी तरह से उल्लंघन है। इसका सार और उद्देश्य, दोनों, लोक-विरोधी है। यह सिर्फ सबसे बड़े पूंजीपतियों और राज्य की दिलचस्पी के विषय का संबोधन करता है कि किसानों, आदिवासी लोगों और मछुवारों को उनकी रोजी-रोटी के मुख्य साधन से कैसे “सुगमता” से बेदखल किया जाये। इसीलिये इस विधेयक को वापस लेना होगा।

विधेयक के मसौदे की प्रस्तावना के दावे के विपरीत, यह मसौदा इसके पहले के 1894 के घृणापूर्ण उपनिवेशी भूमि अधिग्रहण कानून के सारतत्वों को कायम रखता है, जिसका इस्तेमाल उपनिवेशी काल में और स्वतंत्र हिन्दोस्तान में लोगों को अपनी जमीन से बेदखल करने के लिये होता आया है। लोक राज संगठन का मानना है कि वर्तमान 1894 के भूमि अधिग्रहण कानून को रद्द करना जरूरी है। अगला कदम होगा कि भूमि के उपयोगों पर सार्वजनिक विचार-विमर्श के पश्चात एक नया कानून बनाया जाये। इसमें शहरी और ग्रामीण, दोनों जमीनों को शामिल किया जाये। भूमि पर किसका अधिकार है, उसका उपयोग कैसे होना चाहिये और किन शर्तों पर, इन सब पर चर्चा होनी चाहिये और कानून में साफ तरीके से लिखा होना चाहिये। निजी मुनाफे के लिये भूमि के उपयोग को, जो हमारी प्राचीन सभ्यता के स्वभाव के ही खिलाफ़ है, हम चुनौती देते हैं।

हम मांग करते हैं कि:

  1. पुराने भूमि अधिग्रहण कानून और सेज़ कानून को तुंरत रद्द करो।
  2. लोगों की उम्मीदें पूरी न करने वाले इस विधेयक के मसौदे को तुरंत वापस लो।
  3. सरकार एक श्वेत पत्र निकाले जिसमें भूमि अधिग्रहण कानून के तहत, 1947 से अब तक अर्जित सभी जमीनों का ब्यौरा दिया जाये; कितने लोग विस्थापित हुये और उनके पुनःस्थापन की अभी क्या स्थिति है।
  4. लोगों से परामर्श के साथ एक नये कानून का मसौदा तैयार किया जाये जिसमें शहरी और ग्रामीण, दोनों जमीनें शामिल हों।
  5. निजी पक्षों के बीच भूमि की खरीदी और बिक्री पर पाबंदी लगे।
  6. खेत भूमि के सार्वजनिक हितों के नाम पर सरकार द्वारा भूमि अर्जन के लिये सख्ती लागू होने वाली जरूरी शर्तों की सूची बनायी जाये। हिन्दोस्तानी राज्य द्वारा “सार्वजनिक हितों” के नाम पर किये गये भूमि अधिग्रहण से किये गये अन्याय के लम्बे इतिहास को ध्यान में रखते हुये, सभी लोगों और राजनीतिक ताकतों सहित, पूरे देश में चर्चा का आयोजन होना चाहिये, जिसमें “सार्वजनिक हित” को साफ तरीके से परिभाषा दी जानी चाहिये।
  7. ऐसे परामर्श के पश्चात, भविष्य के सभी कानून निम्नलिखित से मेल खाने वाले होने चाहिये:

 

  • मानव का रोजी-रोटी और आवास का अधिकार अनुल्लंघनीय है।
  • लोगों के सामूहिक मालिकी के संसाधनों के अधिकार को मान्यता मिलनी चाहिये।
  • किसी भी परिस्थिति में भूमि अर्जन के लिये बल प्रयोग नहीं किया जाना चाहिये।
  • सूचना के साथ पूर्व सहमति सभी का अधिकार है।
  • जब तक सभी प्रभावित लोगों का सत्यापन के साथ उचित तौर से पुनःस्थापन नहीं होता तब तक किसी भी परियोजना की शुरुआत नहीं की जानी चाहिये।
  • पुनःस्थापन व्यापक होना चाहिये, जिसमें आवास, रोजगार, सामूहिक संसाधनों तक पहुंच, आदि शामिल होना चाहिये। भूमि अधिग्रहण से प्रभावित सभी लोगों को नज़दीक की समतुल्य गुणवत्ता वाली पर्यायी भूमि अनुदान में मिलनी चाहिये।
  • पुनःस्थापन के साथ, परियोजना के लागू होने और उस पर निगरानी रखने में स्थानीय समितियों की भूमिका होनी चाहिये।
  • सिर्फ भूमि से वंचित होने के लिये ही नहीं बल्कि उनके द्वारा सामूहिक संसाधनों तक पहुंचने में कमी के लिये भी लोगों को मुआवजा मिलना चाहिये। सिर्फ भूमि मालिकों को ही नहीं बल्कि खेती के आधार पर रोजगार पाने वाले सभी लोगों का सत्यापन के साथ पुनःस्थापन होना चाहिये और मुआवजा मिलना चाहिये।
  • ग्रामीण और शहरी समुदायों के अधिकारों का आदर होना चाहिये।

भवदीय,
एस. राघवन
अध्यक्ष, लोक राज संगठन

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