लोक राज संगठन की दिल्ली परिषद की अगुवाई में ‘खाद्य पर सभी का अधिकार’ को लेकर दिल्ली में अभियान चल रहा है। इस अभियान में लोक राज संगठन की स्थानीय समितियों के सदस्य बढ़-चढ़कर भाग ले रहे हैं।
प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून पर लोक राज संगठन का बयान, नई दिल्ली, 20 मई, 2010 :
यह बेहद शर्म की बात है कि अपने देश में 35 करोड़ लोग भूखे सोते हैं। यह हिन्दोस्तान की आबादी का एक-तिहाई है और विश्व के सभी भूख से मरने वालों की संख्या का आधा है (जबकि हिन्दोस्तान की आबादी विश्व की आबादी का सिर्फ एक-छठा हिस्सा है)। हिन्दोस्तान इसलिये भी बदनाम है कि दुनिया में सबसे अधिक कुपोषित बच्चों व महिलाओं की संख्या यहां पर ही है।
खाद्य पदार्थों की कीमतों में अभूतपूर्व वृध्दि से पिछले दो वर्षों में भुखमरी व कुपोषण की समस्या और भी गंभीर हो गयी है। कीमतों को काबू में रखने के लिये सरकार ने कोई कदम नहीं उठाये हैं। उसने मानसून की कमी को जिम्मेदार ठहराया है (जबकि सूखा पड़ने के पहले ही कीमतें आसमान छू रहीं थीं)। सरकार ऊंची अंतर्राष्ट्रीय कीमतों का भी बहाना बनाती है जबकि हिन्दोस्तान के खाद्यान्नोंं के भंडार लबालब भरे हुये हैं जिनसे सब लोगों की जरूरत पूरी की जा सकती है। अब सरकार कह रही है कि कीमतों पर नियंत्रण करने के लिये लोगों को और कई महीनों तक सब्र करना पड़ेगा।
दूसरी तरफ लोगों की लगातार सरकार से मांग रही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) को व्यापक बनाया जाये और कीमतों पर काबू पाया जाये।
लोगों की इस मांग के दबाव में आकर संसद में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून बनाने के लिये बिल लाया जा रहा है। इस कानून के प्रावधानों का अध्ययन करने से पता चलता है कि इसके नाम में ही धोखाधड़ी है – कि यह कानून सभी लोगों को खाद्य सुरक्षा देने के लिये नहीं है। पहली चीज है कि यह कानून सिर्फ गरीबी रेखा से नीचे वाले परिवारों (बी.पी.एल.) को प्रतिमाह 25 किलो खाद्यान्न मुहैया कराने तक ही सीमित है। वर्तमान में बी.पी.एल. परिवारों में से 40 प्रतिशत परिवारों को, अंत्योदय योजना के तहत, प्रतिमाह 35 किलो खाद्यान्न मिलता है। अर्थात इन लोगों को नये कानून से नुकसान होगा। दूसरी बात है कि इस कानून को लागू करने के लिये नये तंत्र बनाने का कोई प्रस्ताव नहीं है। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून का प्रशासन वर्तमान पी.डी.एस. के जरिये किया जायेगा। प्रस्थापित पी.डी.एस. से लोग बेहद दुखी हैं क्योंकि इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होता है। इन कारणों की वजह से हमें खाद्य सुरक्षा कानून के इस वर्तमान रूप का विरोध करना चाहिये।
लक्षित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (टी.पी.डी.एस.) ने अधिकांश लोगों को, इससे पुरानी योजना के तहत मिलने वाली, सहूलियतों से वंचित कर दिया है। टी.पी.डी.एस. के तहत सिर्फ गरीबी रेखा के नीचे वाले परिवारों को ही राशन का सामान मिलता है। सबसे पहली समस्या है कि हिन्दोस्तानी सरकार द्वारा नियुक्त की गयी विभिन्ना एजेंसियों में ‘किसे गरीबी रेखा के नीचे मानना है?’ इस विषय पर एकमत नहीं है। अलग-अलग अनुमान बी.पी.एल. लोगों की संख्या का अलग-अलग आकलन करते हैं। योजना आयोग का दावा है कि देश के 26 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। आज की तारीख में इसी अनुमान को सरकारी मान्यता प्राप्त है। लेकिन योजना आयोग की तेंदुलकर समिति का अनुमान है कि 36 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। ग्रामीण विकास मंत्रालय की सक्सेना समिति का आकलन है कि देश के 50 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। अर्जुन सेन गुप्ता की रिपोर्ट के अनुसार देश के 77 प्रतिशत लोग 20 रु. प्रतिदिन से भी कम में गुजारा करते हैं। किसी भी तर्क से ऐसे लोगों को गरीबों में ही गिना जाना चाहिये!
एक गंभीर नुक्स यह है कि गरीबी रेखा के नीचे वालों के पीले राशन कार्ड मान्यता प्राप्त गरीबों की संख्या के आधार पर दिये जाते हैं। केन्द्र सरकार हर प्रांत के लिये पीले कार्डों की संख्या तय करती है। यह सभी को मालूम है कि जिनके पास पर्याप्त ‘पहुंच’ होती है, उनको पीले कार्ड मिल जाते हैं जबकि उनसे भी गरीब करोड़ों लोगों को नहीं मिलते हैं। कुछ प्रांतों ने केन्द्र सरकार द्वारा तय की गयी संख्या के सभी परिवारों को पीले राशन कार्ड जारी किये हैं और अन्य प्रांतों ने आधे कार्ड भी जारी नहीं किये हैं।
टी.पी.डी.एस. की शुरुआत 1997 में की गयी थी जब नयी आर्थिक नीति के तहत लोगों को दी जा रही सभी सबसिडियों को कम करने का अभियान चलाया गया था। इसकी शुरुआत के तुरंत बाद राशन की दुकानों की संख्या बहुत कम हो गयी। राशन दुकानों के मलिकों का कमीशन ज्यों का त्यों, यानि कि एक किलो अनाज पर मात्र 8 पैसा, ही रखा गया। उन्हें अपने खर्चे पर भारतीय खाद्य निगम के गोदाम से अनाज उठाना होता है। एक ईमानदार दुकानदार द्वारा इन हालतों में राशन की दुकान चलाना असंभव है। नतीजन बड़ी संख्या में राशन की दुकानों के धंधे बंद हो गये। जो दुकानदार अभी भी राशन की दुकान चलाते हैं वे राशन के माल की कालाबजारी करते हैं और तरह-तरह की हेरा-फेरी करते हैं। फलस्वरूप लोगों के लिये राशन की चीजें और भी कम उपलब्ध होती हैं।
एक और तथ्य ध्यान में रखने योग्य है। प्रांत का पी.डी.एस. कोटा पिछले साल में उठाये राशन की सामग्री के इस्तेमाल के आधार पर रहता है। अगर राज्य सरकार पिछले साल के पूरे कोटे का इस्तेमाल नहीं करती तो उसका कोटा कम कर दिया जाता है। इसकी वजह से साल दर साल पी.डी.एस. के जरिये खाद्य पदार्थों का वितरण घटता ही गया है। 13 वर्ष के बाद, कुछ प्रांतों में राशन का वितरण पहले के मुकाबले सिर्फ 10 प्रतिशत ही रह गया है जबकि गरीबों व भूखे लोगों की संख्या में वृध्दि हुई है!
क्या हम गलत होंगे अगर हम कहें कि टी.पी.डी.एस. का मकसद पी.डी.एस. को खत्म कर देना था?
इस वर्ष रबी की फसल आने के पहले, सरकारी गोदामों में 4 करोड़ टन से भी अधिक गेंहू व चावल के भंडार थे। खाद्यान्नों से संबंधित किसी भी आपत्कालीन परिस्थिति का सामना करने के लिये 2 करोड़ टन खाद्यान्न पर्याप्त हैं। अभी रबी की फसल की खरीद जारी है और इससे करीब 2 करोड़ टन गेंहू आ जायेगा। सरकार के पास खाद्यान्नों का भंडार 6 करोड़ टन हो जायेगा। भारतीय खाद्य निगम (एफ.सी.आई.) के गोदामों में सिर्फ 2 करोड़ टन भंडारण की ही क्षमता है। अत: अतिरिक्त अनाज को बाहर ही रखना पड़ता है, जहां से उसे चूहे खा जाते हैं या वह पड़े-पड़े सड़ जाता है। इतना भंडार होने के बावजूद गेंहू के भाव बढ़ते ही रहे हैं!
सरकार कुछ ही महीनों में क्या कहेगी, इसकी भविष्यवाणी की जा सकती है। वह कहेगी कि अतिरिक्त भंडार को कम करने के लिये उसे निर्यात करना होगा। एक बार सरकार निर्यात करने का अपना इरादा जाहिर करेगी, तब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में गेंहू की कीमतें गिरेंगी। सरकार गेंहू को 11 रु. प्रति किलो में खरीदती है परन्तु निर्यात में उसे 8 रु. प्रति किलो से भी कम मिलेंगे। अर्थात सरकार अंतर्राष्ट्रीय खाद्यान्न व्यापारियों को 3 रु. प्रति किलो की सबसिडि देगी जबकि यह सरकार हिन्दोस्तानी लोगों को यही सबसिडि देने में आनाकानी करती है!
अच्छी उपज की वजह से किसान, गेंहू को 11 रु. प्रति किलो की न्यूनतम समर्थन कीमत के भी नीचे बेचने पर मजबूर हो रहे हैं। इस साल की कम कीमत की वजह से अगले साल किसान गेंहू की फसल में कटौती करेंगे, जिससे एक दो साल में फिर गेंहू की कमी हो जायेगी। तब सरकार गेंहू के आयात की जरूरत की दलील देगी। यह आयात-निर्यात का चक्कर कई बार चल चुका है। सिर्फ गेंहू के लिये ही नहीं, बल्कि चीनी जैसे दूसरे खाद्य पदार्थों में भी ऐसी ही प्रक्रिया होती है।
खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भरता की नीति को त्याग कर सरकार ने आयात-निर्यात की नीति अपनायी है। इस नीति का लक्ष्य मेहनतकश लोगों को पर्याप्त मात्रा में अच्छी गुणवत्ता के खाद्य पदार्थ प्रदान करना नहीं है, बल्कि बड़ी हिन्दोस्तानी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफों को अधिकतम करना है। देश की खाद्य नीति इन्हीं कंपनियों के हित में चलाई जा रही है।
उपरोक्त को ध्यान में रखते हुये हमारी निम्नलिखित मांगें हैं :
• देश के (पांच सदस्य वाले) हर परिवार को, प्रतिमाह 35 किलो अनाज (यानि कि 7 किलो प्रतिव्यक्ति), 3 रु. प्रति किलो की उचित कीमत पर मिलना चाहिये। सरकार का मानना है कि इस कीमत पर गरीब अनाज खरीद सकते हैं।
• जनता द्वारा उपभोग की सभी जरूरत की वस्तुयें, जैसे कि चीनी, तेल, दालें, नमक, मिट्टी का तेल, चाय, साबुन, इत्यादि, उचित दाम पर मिलने चाहिये।
• सरकार ने स्वयं 13 जरूरी वस्तुओं की सूची बनायी है; ये सभी पी.डी.एस. के जरिये मिलने चाहिये।
• सभी जरूरी वस्तुओं के पी.डी.एस. के जरिये मिलने के साथ-साथ किसानों के लिये सरकार को समर्थन कीमतें सुनिश्चित करना चाहिये। हर वर्ष समर्थन कीमतों में बहुत कम बढ़त होती है जबकि खेती में लगने वाली वस्तुओं के दाम तेजी से बढ़ रहे हैं। हमें यह मांग करनी होगी कि किसानों को खेती में लगने वाली सभी वस्तुयें उसी दाम पर सुनिश्चित हों जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) को तय करने के लिये ली गयी हों।
• हर (पांच सदस्यों के) परिवार को 35 किलो अनाज प्रतिमाह उपलब्ध कराने के लिये हर वर्ष 9 करोड़ टन गेंहू व चावल की जरूरत होगी। देश में करीब 20 करोड़ टन अनाज प्रतिवर्ष पैदा होता है।
• सरकार बहुत से मोटे अनाज जवार, बाजरा, आदि, जैसी पोष्टिक व लोकप्रिय फसलों की खरीदी नहीं करती है। हम मांग करते हैं कि लोगों द्वारा उपभोग करने वाली सभी फसलें पी.डी.एस. के जरिये मिलनी चाहिये और उनके लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य (एम.एस.पी.) की घोषणा होनी चाहिये तथा सरकार द्वारा खरीदी की व्यवस्था होनी चाहिये।
• हम मांग करते हैं कि थोक व्यापार निजी हाथों से निकाल दिया जाये और खाद्यान्नोंं के वितरण का नियंत्रण लोगों के हाथों में लाया जाये।
• राशन की मात्रा प्रति व्यक्ति के हिसाब से तय होनी चाहिये न कि प्रति परिवार ताकि सबके लिये पर्याप्त मात्रा में आहार सुनिश्चित हो।
• पर्याप्त मात्रा में और अच्छी गुणवत्ता व पोषक आहार हर व्याक्ति का अधिकार है।
• जरूरत के अनुसार लोगों के लिये हर प्रकार के खाद्य पदार्थों की उपलब्धी उनका अधिकार होना चाहिये। यानि कि हमें एक व्यापक पी.डी.एस. की जरूरत है। राशन दुकानों तक खाद्यान्ना पहुंचाना सरकार का काम होना चाहिये। पी.डी.एस. का नियंत्रण लोगों के हाथों में होना चाहिये।
इसके लिये धन कहां से आयेगा?
हर (पांच सदस्यों के) परिवार को 35 किलो अनाज 3 रु. प्रति किलो उपलब्ध करने के लिये सरकार को प्रति वर्ष 1,20,000 करोड़ रु. खर्च करने होंगे।
सरकार का रक्षा बजट 1,70,000 करोड़ रु. है जिसका 70 प्रतिशत नये हथियार खरीदने के लिये इस्तेमाल होता है। अत: अगर नये हथियार नहीं खरीदे जायें तो सबको खाद्य पदार्थ मिल सकते हैं।
वित्तीय संस्थानों के लिये ऋण पर ब्याज चुकाने के लिये सरकार सालाना 3,00,000 करोड़ रु. खर्च करती है। इसका एक बड़ा हिस्सा बचाया जा सकता है अगर सरकार कुछ अरसे के लिये वित्तीय संस्थानों का कर्जा चुकाना बंद कर दे। खाद्य संकट की तुलना में, 2008 में शुरु होने वाले आर्थिक संकट के जवाब में सरकार ने, बड़े पूंजीपतियों और उनकी कंपनियों के मुनाफे को बचाने के लिये, 2,10,000 करोड़ रु. की आर्थिक सहायता दी। देखते ही देखते कुछ महीनों के अंदर सरकार ने बड़े पूंजीपतियों को तीन सहायता पैकेज दिये।
कीमतों के बढ़ने का टी.पी.डी.एस. से सीधा संबंध है। एक ही झटके में सरकार ने लोगों के भले के लिये होने वाले खर्चे को एक चौथाई कर दिया। खाद्य पदार्थों के आयात व निर्यात का मुद्दा भी इससे ही जुड़ा है।
इन सब मुद्दों को ध्यान में रखते हुये हम नहीं मानते कि सरकार के पास लोगों को भूख से बचाने के लिये जरूरी पैसा नहीं है। लोगों के लिये खाद्य पदार्थ उपलब्ध कराना सरकार की प्राथमिक जिम्मेदारी है तथा यह उसका सबसे महत्वपूर्ण काम है।
दूसरे बहुत से संगठनों की तरह, लोक राज संगठन, लोगों के लिये एक व्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था के लिये संघर्षरत है। राशन कार्डों व राशन सामग्री के अधिकार के साथ, जो आज सिर्फ कागज पर हैं, लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिये हम अलग-अलग क्षेत्रों में लोक राज समितियों का निर्माण कर रहे हैं। हम सभी को बुलावा देते हैं कि हमारे साथ मिलकर, अपने संघर्ष को मजबूत करें।
लोक राज संगठन सभी को बुलावा देता है कि हर जगह लोगों की समितियां बनायें ताकि :
• वर्तमान रूप खाद्य सुरक्षा कानून के जैसे, अपने अधिकारों में कटौती की सभी कोशिशों का विरोध करें!
• एक व्यापक सार्वजनिक वितरण व्यवस्था, जिसमें अच्छी गुणवत्ता वाली सभी जरूरी वस्तुयें उचित दर पर सभी को मिलें, इसके लिये हम संघर्ष करें!
• सरकार के सभी अनुत्पादक खर्चों को खत्म करने की मांग करें ताकि सभी के लिये खाद्य पदार्थ सुनिश्चित हो सकें!